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किसको रोऊँ मैं दुखड़ा ?

ग्रीष्म में तपता हिमाचल, घोर बृष्टि हो रही
अमृत सा जल बन हलाहल, नष्ट सृष्टि हो रही
काट जंगल घर बनाते, खंडित होता अचल प्रदेश
रे नराधम, बदल डाले, स्वयम ही भू परिवेश
धर बापू का रूप न जाने, किसने लूटा संचित देश
मर्यादा के राम बता दो, धारे हो क्या वेश
मोड़ी धारा नदियों की तो, आयी नदियाँ शहरों में
बहते घर साजो-सामान, हम रात गुजारें पहरों में.
आतुर थे सारे किसान,काटें फसलें तैयार हुई
वर्षा जल ने सपने धोये, फसलें सब बेकार हुई
लुट गए सारे ही किसान,अब नहीं फायदा खेती में
मिहनत करते हाड़ तोड़ते, बीज मिट गए सेती में.
इससे अच्छा लो जमीन अब, रोजगार दो मुझको भी,
काम महीने भर करावा लो, दो पगार अब मुझको भी
चाहे कोई खेल खेला लो, गीत खुशी के गाऊंगा
चला मशीनें घर आऊंगा, बच्चों के संग खाऊँगा
कुछ भी कर लो मेरे आका, नहीं सहन अब होता है
नही चाहता मरना असमय, बच्चों का दुख होता है
ऐसी क्या सरकार बनेगी, समझे ऐसे मसलों को  
लागत पर ही मूल्य नियत हो, बीमित कर दे फसलों को  
हम  भी आखिर मतदाता हैं, कहलाते हैं अन्नदाता ,
नारों से न पेट भरेगा, हमें समझ में है आता
मिहनतकश हूँ सो लेता हूँ, चाहे बिस्तर हो रुखड़ा,
नहीं बुझेगी जठराग्नि तो, किसको रोऊँँ मैं दुखड़ा?

(मौलिक व अप्रकाशित)

- जवाहर लाल सिंह  

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Comment by JAWAHAR LAL SINGH on April 3, 2015 at 1:58pm

आदरणीय श्री राजकुमार आहूजा जी, सादर अभिवादन! आपका सुझाव सर आखों पर मैं मूल प्रति में आपके द्वरा सुझाये गये 'शब्द' परिवर्तित कर लूँगा ...आपका बहुत बहुत आभार!

Comment by rajkumarahuja on April 2, 2015 at 10:44pm

सुन्दर अभिव्यक्ति माननीय जवाहर लाल सिंह जी ! यदि यह पंक्ति इस प्रकार होती तो ...आतुर थे सारे किसान काटें फसलें तैयार हुई ,वर्षा जल ने सपने  " धोये " फसलें सब बेकार हुई !  // काम महीने भर करवा लो दो पगार " अब  " मुझको भी !   सादर ..... 

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on April 2, 2015 at 9:35pm

आदरणीय गिरिराज भंडारी साहब, रचना की सराहना और उत्साह वर्धन के लिए हार्दिक आभार!

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on April 2, 2015 at 9:33pm

आदरणीय सोमेश kumar जी, सादर अभिवादन! रचना का मर्म व्यक्त करने के लिए ह्रदय से आभार!

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on April 2, 2015 at 9:32pm

आदरणीय जितेन्द्र पस्तारिया साहब, उत्साह वर्धन के लिए हार्दिक आभार!

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on April 2, 2015 at 9:30pm

आदरणीय लडीवाला साहब, सादर अभिवादन! उत्साह वर्धन का हार्दिक आभार!


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Comment by गिरिराज भंडारी on April 2, 2015 at 1:34pm

आदरणीय जवाहर भाई , मिहनत कशों की सच्चाई बहुत खूबसूरती से बयान किया है , हार्दिक बधाई ॥

Comment by somesh kumar on April 2, 2015 at 11:43am

सुंदर और सामयिक रचना |अन्नदाता की पीड़ा की उचित प्रस्तुति ,बधाई |

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 2, 2015 at 10:31am

बहुत उम्दा और गहन पंक्तियाँ. बधाई आदरणीय जवाहर जी

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 2, 2015 at 10:14am

सुंदर  और  सामयिक रचना  के  लिए  बधाई 

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