मित्रों !
“चित्र से काव्य तक” समूह में आपका हार्दिक स्वागत है | यह प्रतियोगिता आज से ही प्रारंभ की जा रही है, इस हेतु प्रस्तुत चित्र में आज के इस प्रगतिशील आधुनिक समाज के मध्य सैकड़ों साल से चलता आ रहा कोलकाता का रिक्शा दिखाई दे रहा है, आमतौर पर ऐसे रिक्शे पर तीन तीन सवारियां भी देखी जाती हैं, इस कार्य में मान-सम्मान तो दूर अक्सर इन्हें अपमान ही सहन करना पड़ता है, कई सामाजिक संगठनों नें ऐसे रिक्शे बंद कराने की मांग भी की है परन्तु यह सभी रिक्शाचालक इस कार्य को सेवा-कार्य मानते हुए इसे त्यागने को तैयार नहीं हैं |
आइये हम सब इस चित्र पर आधारित अपने अपने भाव-पुष्पों की काव्यात्मक पुष्पांजलि इन श्रमिकों के नाम अर्पित करते हुए उनका अभिनन्दन करते हैं |
नोट :- १५ तारीख तक रिप्लाई बॉक्स बंद रहेगा, १६ से २० तारीख तक के लिए Reply Box रचना और टिप्पणी पोस्ट करने हेतु खुला रहेगा |
सभी प्रतिभागियों से निवेदन है कि रचना छोटी एवं सारगर्भित हो, यानी घाव करे गंभीर वाली बात हो, रचना पद्य की किसी विधा में प्रस्तुत की जा सकती है | हमेशा की तरह यहाँ भी ओ बी ओ के आधार नियम लागू रहेंगे तथा केवल अप्रकाशित एवं मौलिक रचना ही स्वीकार की जायेगी |
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एक माँ
अपने बच्चे को
दे रही थी रिक्शा की जानकारी
और बढ़ा रही थी इसी बहाने
अपने बच्चे की 'जनरल नालेज'
"देखो !
वो जो जा रहा है - उसे रिक्शा कहते हैं
और चलाने वाले को रिक्शा वाला !"
"लेकिन मम्मा, वो तो जमीन पर चल रहा है -
रिक्शा वाला तो रिक्शे के ऊपर बैठ कर रिक्शा चलाता है !"
"बेटा ! वो साइकिल रिक्शा होता है - ये तो रिक्शा है ।
रिक्शा वाला जमीन पर चल कर ही रिक्शा चलाते हैं ।"
"बट मम्मा !"
बेटे का कौतूहल जारी था -
"रिक्शे में दो लोग बैठे हैं - उनका लग्गेज भी है ।"
माँ कुछ खीझी - "देन व्हाट ? रिक्शा तो इसी लिए होता है ।"
"मम्मा, इज नाट इट इनह्यूमन"
अब माँ को कुछ गुस्सा सा आ गया -
"यू नीड नाट बादर ।"
ठीक कहा उस माँ ने - रिक्शा तो इसी लिए होता है !
रिक्शा वाला - एक इन्सान
खीचता है - दूसरे इनसान को
साथ में उसका सामान भी -
उसके लिए सब दिन एक समान !
क्या सर्दी - क्या गर्मी,
क्या धूप और क्या बरसात !
और हम
रिक्शे पर सवार हो -
कभी 'बादर' नहीं करते -
क्या उसने खाया-पिया ?
क्या भरपूर कमा पाता है - परिवार चलाने को ?
क्या उसके बच्चे हैं और हैं तो कैसे बीतते हैं उनके दिन ?
क्या . . . . ढेर से सवाल !
हाँ - 'बादर' नहीं करते हम कभी !
कभी हम उसकी मजदूरी के पैसे काटते
कभी देर से मंजिल तय करने पर उसे घुढ़कते
बिना यह सोचे समझे कि एक इंसान है वो भी !
क्यों ? क्योकि वो है एक रि्क्शा वाला !
और रिक्शा वाला जमीन पर चल कर ही रिक्शा चलाते हैं !
//"मम्मा, इज नाट इट इनह्यूमन"//
बाल ह्रदय से उठा यह प्रश्न इस कविता की जान है - बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए आपको बधाई देता हूँ नीलम जी !
माँ कुछ खीझी - "देन व्हाट ? रिक्शा तो इसी लिए होता है ।"
"मम्मा, इज नाट इट इनह्यूमन"
अब माँ को कुछ गुस्सा सा आ गया -
"यू नीड नाट बादर ।"
बच्चे तो संवेदनशील है पर हम बड़े ? अच्छी भावाभिव्यक्ति नीलम जी ......बधाई आपको ...
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