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हमारी शौहरत को वो पचा ना सके तब आखिर।
अपनो ने ही हमें गैरों से रुस्वा कराया हैं।।
बहुत ही खुबसूरत प्रस्तुति पुनिया साहब...बहुत ही बढ़िया लिखा है आपने....या कहिये तो लाजवाब.....शुभकामनायें...
अच्छी कोशिश, मुसलसल कोशिश से और निखार आयेगा , शायद हम भी शुरूवात में
ऐसे ही थे।
ग़ज़ल कहना सतत् अभ्यास का विषय है, कोशिश करते रहें, संदर्भ सामग्री पढ़ते रहें, गुणवत्ता में सुधार अवश्य आयेगा।
पहली कोशिश बहुत अच्छी है।
शारदा जी,
साहित्य, भाषा से उत्पन्न, नियमों से बँधी विधा है। छंदबद्ध काव्य का ही एक रूप है ग़ज़ल और जब तरही ग़ज़ल की बात हो रही हो तो इसके नियमों का पालन तो आवश्यक है, इससे आप भी सहमत होंगी।
शायद ही कोई शायर हो जो 'प्रयास करना और स्वयं को मॉंजते रहना' की प्रक्रिया से बच पाया हो।
अगर कोई रचना नियमानुकूल न होने के कारण अमान्य कर दी जाती है तो यह देखना जरूरी है कि ऐसा क्यूँ किया गया। इसी से आगे सुधार होगा।
आयेगा, ज़रूर आयेगा।
मन पपीहा है, सुर ढल जायेंगे तो
गायेगा, जरूर गायेगा।
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