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विमर्श: अयोध्या विवाद और रचनाकार

विमर्श:

अयोध्या विवाद और रचनाकार

संजीव 'सलिल'
*
अवध को राजनीति ने सत्य का वध-स्थल बना दिया है. नेता, अफसर, न्यायालय, राम-भक्त और राम-विरोधी सभी सत्य का वध करने पर तुले हैं.

हम, शब्द-ब्रम्ह के आराधक निष्पक्ष-निरपेक्ष चिन्तन करें तो विष्णु के एक अवतार राम से सबंधित तथ्यों को जानना सहज ही सम्भव है. राष्ट्र कवि मैथिली शरण गुप्त के अनुसार '' राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है / कोई कवि बन जाए स्वयं संभाव्य है.''

राम का सर्वाधिक अहित राम-कथा के गायकों ने किया है. सत्य और तथ्य को दरकिनार कर राम को इन्सान से भगवान बनाने के लिये अगणित कपोल कल्पित कथाएं और प्रसंग जोड़ेकर ऐसी-ऐसी व्याख्याएँ कीं कि राम की प्रामाणिकता ही संदेहास्पद हो गयी.

अब भगवान का फैसला इन्सान के हाथ में है. क्या कभी ऐसा करना किसी इन्सान के लिये संभव है ?

स्व. धर्मदत्त शुक्ल 'व्यथित' की पंक्तियाँ हैं:

''मेरे हाथों का तराशा हुआ, पत्थर का है बुत.
कौन भगवान है सोचा जाये?''

और स्व. रामकृष्ण श्रीवास्तव कहते हैं:

''जो कलम सरीखे टूट गए पर झुके नहीं .
उनके आगे यह दुनिया शीश झुकाती है ..
जो कलम किसी कीमत पर बेची नहीं गयी-
वह तो मशाल की तरह उठाई जाती है..''

और महाकवि दिनकर जी लिख गए हैं कि जो सच नहीं कहेगा समय उसका भी अपराध लिखेगा.

इस संवेदनशील समय में हम मौन रहें या सत्य कहें? आप सब आमंत्रित हैं अपने मन की बात कहने के लिये कि आप क्या सोचते हैं?

इस समस्या का सत्य क्या है?

क्या ऐसे प्रसंगों में न्यायालय को निर्णय देना चाहिए?

कानून और आस्था में से किसे कितना महत्त्व मिले?

निर्णय कुछ भी हो, क्या उससे सभी पक्ष संतुष्ट होंगे?

आप अपने मत के विपरीत निर्णय आने पर भी उसे ठीक मान लेंगे या अपने मत के पक्ष में आगे भी डटे रहेंगे?

उक्त बिन्दुओं पर संक्षिप्त विचार दीजिये.

सत्य रूढ़ होता नहीं, सच होता गतिशील.
'सलिल' तरंगों की तरह, कहते हैं मतिशील..

साथ समय के बदलता, करते विज्ञ प्रतीति.
आप कहें है आपकी, कैसी-क्या अनुभूति??

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यह तो सत्य है कि निर्णय चाहे जो भी आये एक पक्ष को असंतुष्ट तो होना ही है| मुझे इस सन्दर्भ में अवध के ही बाशिंदे और मकबूल शायर मुनव्वर राणा साहब का इस व्यर्थ कि राजनीति से होने वाले नुकसान से क्षुब्ध होकर काफी पहले का दिया हुआ बयान याद आता है| उनका कहना था कि आप विवादित क्षेत्र में मंदिर बना लें और बदले में मुस्लिम समुदाय को १० मुस्लिम विश्विद्यालय भी बनाकर दें|
कुछ ऐसी ही मध्यमार्गी नीतियों से ही इस मसले का हल निकल सकता है|
राम का मंदिर हासिल करते समय ये तो ख्याल रखना ही पड़ेगा कि कहीं हम दिलों में समाये राम की प्रतिमा स्वयं तो नहीं तोड़ रहे हैं...राम का असली मंदिर तो मानव का मन मस्तिष्क है ...इंसानी वजूद है ..आपसी भाई-चारा है ...और राम तो पूरी ज़िन्दगी मानवता के लिए संघर्ष करते रहे हैं ....बुत शिकन कभी मन में विराजमान भगवान का मंदिर नहीं नहीं तोड़ सकते जब तक हम स्वयं इतने कमजोर न हो जाएँ कि मानवता ही भूल जाएँ....
मेरे ख्याल से हमें इस स्थान का उपयोग पर्यटन की दृष्टि से करे..न कि धार्मिक दृष्टि से....आज कोणार्क ,खजुराहो हमारे पर्यटन की अमूल्य थाती हैं...वे आज भी मंदिर हैं यद्यपि उनमे पूजा नहीं होती ...और किसी समुदाय को उनसे कोई शिकायत भी नहीं है...क्या अच्छा हो कि वहां एक संग्रहालय बने जिसमे राम से सम्बंधित सभी जानकारियां सप्रमाण उपलब्द्ध हों...ऐसे मंदिर का दर्शन कर हमारी आस्था और भी मज़बूत होगी ...और हमारी अस्मिता की भी रक्षा होगी...
मुझे पूरा विश्वास है कि हमारे देशभक्त मुस्लिम भाई को भी इस पर कोई ऐतराज़ नहीं होगा....और एक विवादित मुद्दा खत्म होने से कानून व्यवस्था की रक्षा होगी...
डॉ. ब्रजेश जी का सुझाव अच्छा है. क्या इससे आप सहमत हैं? क्या अवध में राम जन्म स्थान पर सीताराम शोध केंद्र स्थापित हो? सुझाव राणा प्रताप जी का भी उपयुक्त है. क्या हमारे मुस्लिम बंधु इसे स्वीकारेंगे? आप के विचारों की प्रतीक्षा है. आपको न्यायाधीश बना दिया जाये तो आपका फैसला क्या होगा और क्यों?
कभी-कभी यह सोचकर दुःख होता है कि "ईश्वर अल्लाह तेरो नाम... सबको सन्मति दे भगवान्..." को लोग केवल एक गीत ही क्यों समझते हैं? इसमें छिपे सदभावना सन्देश को क्यों नहीं समझते?
परन्तु मुझे इस निर्णय से अत्यंत संतुष्टि हुई कि विवादित स्थान पर किसी विशेष धर्म-सम्प्रदाय को तवज्जो न देते हुए, कोर्ट ने दोनों ही धर्मों को समान दृष्टि से देखा. देखा जाए तो इस प्रकार का निर्णय वर्षों पहले ही हो जाना चाहिए था. मैं कोर्ट के फैसले से पूर्ण सहमत हूँ और इसका पूर्ण स्वागत करता हूँ.

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"आदरणीय चेतन प्रकाश जी, प्रदत्त चित्र पर बढ़िया प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई। सादर।"
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