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रिश्तों में सब कुछ परिभाषित नहीं होता ',प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो .हाथ से छू के इसे रिश्तों का इलज़ाम न दो ',गुलज़ार साहेब की ये पंक्तियाँ पूरी तरह सही हैं इस कथा के लिए बधाई आपको आ०सुरेन्द्र जी
बहुत सुन्दर कथा.. कितने रिश्तें सामाजिक दवाब के चलते खो जाते हैं.. उनको परिभाषित कर पाना कहा आसान होता है... मार्मिकता के साथ मनोभावों को प्रकट करती कथा पर बहुत बहुत बधाई.. आदरणीय सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा जी..
बहुत सधी , सुन्दर व विषय को पूर्णतया परिभाषित करती लघुकथा। बधाई आ. सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा जी।
जय श्री गणेशाय : नमः
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लघुकथा विषय - परिभाषा
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शीर्षक : बहादुरी
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लगभग ४० बर्ष पहले ,हमारे देश के कस्बों और गाँव में शौंचालयों की उचित व्यवस्था नहीं थी , तब निवासियों को गाँव से दूर जंगल में जाना पड़ता था l दैनिक कार्यों से निवृत्त होके ,सभी लोग अँधेरा होने से पहले ही घरों में आकर विश्राम करते थे l
उत्तर प्रदेश का एक गाँव ल
बरसात का मौसम ,उस समय गाँव में भेड़िये का आतंक था l
कक्का , भाई , और पुरुष वर्ग के सभी लोग खाना खाकर चौपाल पर चले गए l अम्मा ने पूरे परिवार को खाना खिला दिया ,और बच्चों और सभी जनो के सोने की व्यवस्था कर दी l
तभी चतुरवती विद्या से बोली – “ भौजी ,मोये शौच जाइन की सक होई रई है , अबईं सिगरी रात है ,अबईं जायुंगी l”
विद्या अपनी सास से - “ अम्मा ,चतुरवती शौंच जाइन को कह रईं हैं l”
अम्मा – “तो हुयी आवों दोउ नन्द भोजाई ,पर बच के जइयू; कहूँ भिडिया ना आ जाबे l”
धुंदलका था , चतुरवती और विद्या लोटे में पानी लेके खेतों की तरफ चल दी और एक स्थान पर शौंच को बैठ गयी l
अचानक मानव सुगंध को सूंघकर भेड़िया आ गया ; और चतुरवती को दबोचने की कोशिश की l
चतुरवती चिल्लाई –“ भोजीइइइइइइइइइइइइइइइइइइ भिड़याआआआआआआ”
विद्या की नजर जैसे ही भेड़िये पर पड़ी डर के मारे पसीने छूट गए lबिना छण भर गवायें पानी का लोटा दे मारा ,जो सीधे भेड़िये के लगा l विद्या ने चतुरवती को अपनी तरफ खींचा और घर की तरफ कदम बड़ा दिये l दोनों ने घर आकर रहत की सांस ली l
''मौलिक एवं अप्रकाशित ''
आदरणीया रेणु जी आयोजन में सहभागिता हेतु हार्दिक बधाई और शुभकामनायें
रेनू जी सहभागिता के लिए बधाई |
आपकी इस लघुकथा ने प्रदत्त विषय को कैसे परिभाषित किया है प्रिय रेनू भारती जी ? ज़रा बतायेंगी ? वैसे भी एक स्वतंत्र लघुकथा के तौर पर रचना शिल्प और कथ्य के लिहाज़ से बेहद ढीली है I
जय श्री गणेशाय नमः ?????
आयोजन की भूमिका से ---
"परिभाषा "
" रूप "
"अमर चन्द जी ,बेटी होते हुए भी लड़के की इच्छा ने आपको थाने तक पहुँचा दिया ।
" सुरेखा जी , पेंशन होते हुए भी एक लाख के लिए ईमान बेच दिया ।
" परबतिया और स्यामू , चन्द रुपयों के लिए कलेज़े के टुकड़े को बेच दिया । पाँच के साथ छठा भी पल जाता ऐसा भी क्या लालच ?
गहरी नज़रों से सबको देखते हुए "इंस्पेक्टर प्रताप सिंह ने कहा ।
"सब इंस्पेक्टर सुमेर सिंह बोला, " सर "
बच्चे के अपहरण का केस तो सुलझ गया .
अब क्या करें ?? ....,.
'क्या करें ?..... यही सोच रहा हूँ .
इनकी गज़ब की कहानी में मोड़ कहाँ आया ?
"इन्स्पेक्टर साहब , आपसी रज़ामन्दी से ही सौदा हुआ था . तीन लाख में ,अमर चन्द बोले . इन दोनों को ज्यादा का लालच आया गया .....मुझे ब्लैकमेल करने लगे । नहीं दिए तो ,अपहरण का केस दर्ज़ करवा दिया .......
"साहब जी, बाद में हमें लगा , लड़के को सस्ते में बेच दिए . "स्यामू गिड़गिडाया .
हद है लालच की । दुंनियाँ में लालच के ज़ाने कितने रूप हैं ।बेकार में दौड़धूप करवा दी ।और भी महत्वपूर्ण केस सुलझाने को पड़े हैं ।
" सर " लालच के रूप मतलब ? सिपाही "गुड्डन लाल " ने सिर खुजाया ......
अरे मतलब "लालच की परिभाषा " .
'ये क्या हुआ " साहब " ....
अबे , अब तुम हमारा दिमाग मत खाओ .
पहले ही दिमाग का दही हुआ है ।
" सर "अब क्या करें ?
करना क्या ? ....
"बच्चा ,उसके माँ ,बाप को दे दो ।और बता दो अब बेचा तो सालों को हवालात में बन्द कर देंगें ।
"सुरेखा जी , ये कमीशन का धंधा बन्द कर दो .वरना पुलिस वाले बहुत बुरे भी होते हैं ।
और आपसे क्या कहें " अमर जी , आप जैसे अमीर और पढ़े लिखे लोग ही ऐसा करेंगें तो ?
' देख लीजिये ,....कानून सबके लिए बराबर होता है .
" सर, ज़ब्त दो लाख रूपये ?
"सुमेर सिंह जी, "दो लाख का लालच है तो बहुत बड़ा पर कभी कभी हमें भी अपने "पाप और पुण्य का बैलेंस बनाए रखने की ज़रूरत पड़ती है
गुमनाम नाम से इन्हें वृद्धआश्रम में दान कर दो ।
केस डिसमिस .......
मौलिक एवम् अप्रकाशित ।
आदरणीया जानकी जी, इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई एवं शुभकामनायें.
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