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आदरणीय योगराज प्रभाकर सर की लघुकथा पर कुछ कहना ऐसा होगा जैसा हमारे यहाँ कहावत है "स्याणी चाली सासरै बावली देचे सीख"। पढ़कर ऐसा लगा जैसे मुंशी प्रेम चंद की कहानी हो हर बात परफेक्ट । लेकिन समसामयिक नही लगी। १९६० के आस पास की कहानी लगी।
दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ भाई रोहित शर्मा जी I
अपने देश की वर्ण व्यवस्था पर करारा प्रहार करती लघु कथा बहुत अच्छी आ० योगराज जी, दिल से बधाई लीजिये इस सशक्त लघु कथा पर |लघु कथा की घटना चलचित्र सा असर डालती है पढ़ते पढ़ते |
बहुत बहुत शुक्रिया आ० राजेश कुमारी जी .
आदरणीय योगराज प्रभाकर सर की लघुकथा टिप्पणी पर कुछ कहना ऐसा होगा जैसा हमारे यहाँ कहावत है "स्याणी चाली सासरै बावली देचे सीख"। पढ़कर ऐसा लगा जैसे मुंशी प्रेम चंद की कहानी हो हर बात परफेक्ट । लेकिन समसामयिक नही लगी। १९७० के आस पास की कहानी लगी। वर्तमान शहरों में शहरों में ६० प्रतिशत गांवो में १० प्रतिशत अंतर्जातीय विवाह हो रहे हैं।ठाकुर पंडित का दृश्य पुराना सा पड़ गया आजकल।
आदरणीय रोहितजी, कस्बाई मानसिकता का मतलब तब पढ़ना आवश्यक है. बड़े शहरों में दो या दो से अधिक तरह की सोच और ज़िन्दग़ियाँ दिखती हैं. अतः उन तरह की ज़िन्दग़ियों में से किसी एक या दो के सापेक्ष समूचे परिदृश्य को बाँच लेने की समझ भ्रमकारी ही होगी.
सादर
ठाकुर और पंडित महज़ शब्द नहीं एक मेटाफोर की तरह बरते गए हैं भाई रोहित शर्मा जी I यह एक मानसिकता के प्रतीक हैं जो आज भी न केवल जिंदा है बल्कि फलफूल भी रही है .
सर जी , आपने इस संवाद में बातो के प्रवाह को एक लयबद्धता के साथ लिखे हैं जो हम सबके लेखन में एक नायब और नवीन अनुभूति लिए हुए है। शुरू से ही संवादों में एक घटते और बढते हुऐ बातों का मनोविज्ञान रोपित हुआ है जो कथा के शिल्प को असाधारण बना जाती है ।
पल भर के लिए ऐसा प्रतीत होता है कि छज्जू धोबी अपनी बातों में शायद असफल हो उठेगा कि अचानक ही उसका स्वंय को समर्पण कर देना उग्र नौजवानों के टोले के समक्ष .....बेहतरीन भाव संदेश दे गई । पहली बात जो मुझे इस कथा में लगी ये कि बातों से ही बात बनती है और सकारात्मक सोच इंसान को जीत हासिल करवा ही देता है । मै आज ये कथा दिन में कई बार पढी हूं । मैने आपकी इस लेखन से कई नई लघुकथा की नवीन तकनीकों को जाना है । नमन सर जी इतने मोती हम पर लुटाने के लिये ।
आपकी सराहना से हौसला बढ़ा आ० कांता रॉय जी, हार्दिक आभार स्वीकारें .
आदरनीय योगराज जी, आप जी ने बहुत ही लाजवाब लघुकथा कही , और सदियों से चल रही वर्ण व्यवस्था अभी भी कायम रखने की कोशिश हो रही
आपने बिलकुल सही फ़रमाया आ० मोहन बेगोवाल जी, जाति-वर्ण का कोढ़ आज भी प्रासंगिक है हमारे देश में I रचना की सराहना हेतु दिल से शुक्रिया I
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