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आदरणीया नीता जी ...जब भोजन करना गुज़रे ज़माने की बात नहीं है आज तक तो बनाना क्यों?? कथा पर उपस्थिति पर आभार .
ये अजब गज़ब सोच हुई भई.... एक व्यक्ति की दिनचर्या और जीवन जीने की न्यूनतम आवश्यकताओं को गिना जाए तो उसमें खाना भी सम्मिलित है. एक शरीर को भोजन और स्वच्छता दोनों की जरुरत होती है. कम से कम इतना तो हर व्यक्ति को आना चाहिए. मेरा विशुद्ध मानना है कि खाना बनाना बेटियों को ही नहीं बेटों को भी आना चाहिए ताकि किसी विपरीत परिस्थितियों में भी खुद को विवश न समझे. सादर
आदरणीय सीमा सिंह जी हार्दिक बधाई,आपकी लघुकथा बेहद सधी हुई और रोचक है!एक लडकी को अगर रसोई घर की दक्षता हासिल नहीं है तो सब व्यर्थ!बहुत सुन्दर!
धन्यवाद आदरणीय तेज वीर जी .कमाल की बात हुई है मैंने ऐसा विषय छुआ है जहाँ पुरुषों से समर्थन मिल रहा है और महिलाएं विरोध में आ खड़ी हुई हैं.ये भी यादगार रहेगा मेरे लिए... आपका बहुत धन्यवाद भाव को पकड़ने के लिए..
आभार अर्चना दीदी... माँ होने की सम्पूर्णता ही तब है जब संतान को मन के साथ साथ तन का भी पोषण दिया जाये.. इस भाव का सबसे बड़ा उदाहरण श्रीमती इंदिरा गाँधी एवं प्रतिभा पाटिल जी हैं... सर्वोच्च पद सम्हालने के साथ इन दोनों महिलाओं ने माँ और पत्नी धर्म का भी निर्वहन किया... अपने परिवार को अपने हाथो से बना भोजन खिला कर..
लेखन सदा से लेखक के सोच का आईना माना गया है हमेशा से । स्त्री विमर्श तले आप जैसी सोच रखने वाली महिलायें सदा से आलोचित हुई है । ऐसे ही सोच के संदर्भ में ये बात कही गई है कि" नारी ही नारी की सबसे बडी दुश्मन होती है ।"
इन्हीं सोच के परिदृश्य पालित लडकियां सदा से समाज में तिरस्कृत रही है जिसके फलस्वरूप " स्त्री विमर्श " शब्द ने अपना आकार लिया ।
जैसे कि यहां कथा में इंजीनियर लडकी रोपित हुई है तो , विचारणीय बिन्दु ये है कि पढाई के दौरान सुबह 7 बजे घर से स्कूल जाना और 3 बजे घर को लौट कर फिर 4 बजे से रात 9 बजे तक आई. आई. टी. की कोचिंग पढकर आना .... उच्चशिक्षा के लिये और कठोर छात्रजीवन जीवन के बाद ही एक सार्थक कैरियर का निर्माण होता है ।
लेखिका यहॉ पर एक व्यवसायिक उच्च शिक्षित छात्र जीवन से बिलकुल अपरिचित है। जीवन मुल्यों और तथ्यों को समझने में बेहद अपरिपक्वता को दर्शाया है । ये निजी मत और सोच उनके बेहद संकुचित परिवेश को दर्शाता है । साहित्य केवल अपने अहम की संतुष्टि का साधन नही है । लेखक की लेखनी समाज हित के लिये ही गढी जाती है ।
इस लघुकथा से एक पुरूष दंभ और रूढिवादी सोच जरूर तृप्त हो सकती है लेकिन ये स्त्री जीवन को ....बीते हुऐ पिछली शताब्दी में धकेलने का काम करेगी । ऐसी सोच नारी हित में बिलकुल स्वीकार नहीं है ।
आजकल की बेटियां अकेले दम पर विदेश जाकर अपना सिक्का जमा कर आती है ।
आज का ये सबसे बडा सच है कि घरेलू रसोई व गृहकार्य दक्ष लडकियों को कोई भी कॉरपोरेट वर्ल्ड का लडका पसंद नही करता है । चाहे लडकी दुनियाभर के स्वादिष्ट व्यंजन बना ले य़े चीजें अब जीवन की सार्थकता को पूर्ण नही करती है जरा भी ।
कल्पना चावला से लेकर चंदा कोचर तक अपना परचम अपने कैरियर से ही लहराती आई है ।
शुक्र है कि आपके जैसी रूढिवादी दादी - नानियों वाली सोच से भारत आजाद हो स्त्रीत्व को नई परिभाषा गढने का मिशाल बन गया है । लडकियॉ एक नये आकाश के निर्माण तले नई-नई ऊंचाईयों के साथ अपने लिये नई परिभाषा गढ रही है ।
इस लघुकथा और पारंपरिक सोच पर अच्छी बहस तो हो रही है आश्चर्य है कि लगभग सभी लोग दादी के खाना बनानेवाली मानसिकता से ग्रसित नजर आ रहे हैं. वैसे खाना बनाना महिलाओं में निहित अन्य गुणों के साथ उसके प्रभाव को द्विगुणित कर देती है. पर जब सचिन तेंदुलकर भी किचेन में नजर आते हैं तो उसे क्या कहेंगे. ??? सादर!
चंदा कोचर के बारे में तो पता नहीं, लेकिन कल्पना चावला के बारे में कहा जाता है कि वे पाक कला में प्रवीण थी I यही बात इंदिरा नूई जी के बारे में भी कही जाती है I
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