चढा असाढ, गगन घन गाजा । साजा बिरह दुंद दल बाजा ॥
धूम, साम, धीरे घन धाए । सेत धजा बग-पाँति देखाए ॥
खडग-बीजु चमकै चहुँ ओरा । बुंद-बान बरसहिं घन घोरा ॥
-पद्मावत , मलिक मुहम्मद जायसी
मनुष्य की तरह प्रकृति में भी स्वभाव परिवर्तन हुआ है I आज जायसी की उक्ति सार्थक नहीं है I आषाढ़ माह की त्रयोदशी अर्थात 30 जून 2019 तक न मेघ-गर्जन हुआ न पानी बरसा और न बिजली चमकी I कुछ बादल आकाश में चहलकदमी करते रहे I बकौल ‘आहत लखनवी’ –
न खुश हो इन्हें देखकर ऐ दरख़्तों
ये बादल टहलने को निकले हैं घर से
किन्तु उस दिन ‘दीप लोक’’ MDH 5 /1, सेक्टर H, जानकीपुरम. बाल्दा रोड, लखनऊ में श्याम, धूमर और धौरे बादल छाये ,मेघनाद भी हुआ, सफ़ेद बगुले की पाँतें भी दिखीं , बिजली भी कड़की और इन सारे उपादानों के साथ कविता की धारासार वर्षा भी हुयी I पर इससे पूर्व गजलकार भूपेन्द्र सिंह ‘होश’ की अध्यक्षता में डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव के ऐतिहासिक कथा संग्रह ‘नौ लाख का टूटा हाथी’ की कहानी ‘इराक का व्यापारी’ का पाठ हुआ जो स्वयं लेखक ने किया I तत्पश्चात उस पर उपस्थित सभी विद्वानों ने अपनी सम्मतियाँ दी I कहानी लगभग सभी द्वारा पसंद की गयी i इस कहानी में लखनऊ की शानदार नवाबी का गौरव दिखा I नवाबों की कुख्यात सनक की झलक भी मिली I नफासत के साथ किसी की पगड़ी कैसे उछाली जाती है, अवध की उस तहजीब का खुलासा हुआ I कहानी में निरंतर जिज्ञासा जगाने का जो भाव होना चाहिए, वह अंत तक बना रहा I कहानी का शिल्प भी सराहा गया I प्रिंटिंग की कुछ त्रुटियों पर चिंता भी प्रकट की गयी I
काव्य पाठ का संचालन मनोज शुक्ल ‘मनुज’ द्वारा किया गया I उन्होंने सरस्वती वंदना के लिए डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव को आमंत्रित किया I डॉ. श्रीवास्तव ने उपालम्भ वन्दना का स्वरुप प्रस्तुत करते हुए दो घनाक्षरियाँ सुनायीं I उसकी एक बानगी प्रस्तुत है-
देखो मातु , शारदा है आपकी विचित्र अति
मेरी लेखनी का अंग-भंग कर देती है ।
चिन्तना में डूबता हूँ आत्मलीन होके जब
शुण्ड को हिला के मुझे तंग कर देती है ।
काटती हठीली बात-बात पर मेरी बात
देती नये तर्क मुझे दंग कर देती है ।
किन्तु यही वसुधा के कीट कवियो की सारी
काव्य-सर्जना को रस-रंग कर देती है ।
इसके बाद काव्य-पाठ हेतु मृगांक श्रीवास्तव का आह्वान हुआ I उन्होंने व्यंग्य की कुछ सुन्दर रचनायें सुनायीं I उनका एक राजनीतिक व्यंग्य इस प्रकार है -
राहुल अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे, ऐंठे हैं I
मनाने को कांग्रेसी, धरने पर बैठे हैं II
शीला जी मना रही हैं परिवार का वास्ता देकर
मान जाओ राहुल प्रियंका के बेटे अभी छोटे हैं II
कवयित्री अलका त्रिपाठी ‘विजय’ ने जन्मदात्री माँ को याद करते हुए एक सम्मोहक गीत सुनाया –
माँ तुम मेरी स्वर-तंत्री हो, उद्बोधन के गीत मैं लिख दूं I
आँचल के आशीष तले अब संबोधन के गीत मैं लिख दूं II
डॉ. अंजना मुखोपाध्याय ने ‘निगहबानी’ और ‘क्षितिज’ को अपने ढंग से परिभाषित किया और उसे अपनी अनुभूति से नए अर्थ दिए I यथा –
निगहबानी – एक जमाना था ---- जब माँ की कोख में ----
क्षितिज – पहचान तुम्हारी लहर बनी
डॉ. अशोक शर्मा ने प्रकृति का मानवीकरण कुछ इस अंदाज से किया की सूरज को भी उनके पत्र का उत्तर तुरंत ही देना पड़ा I यथा –
कल ही तो सूरज को एक पत्र डाला है I
और आज मेरे घर में फैला उजाला है II
कवयित्री नमिता सुन्दर की संवेदना सदैव गहरी होती है I वह जीवन से उकता कर या फिर महज एक परिवर्तन के लिए जंगलों की ओर जाना चाहती हैं, जहाँ रहस्य और रोमांच के बीच एक अयाचित ख़तरा भी है I इसके बावजूद भी वह बड़ी सहजता से कहती हैं –
आओ न
हम चलें
घने जंगलों के बीच
डॉ. शरदिंदु मुकर्जी ने ‘एहसास’ और ‘लखनऊ रेसीडेंसी में’ शीर्षक से दो कवितायें सुनायीं I अहसास आत्मबोध की कविता है, जब हर ओर पतन है गिरावट है और जीवन मूल्य गिर रहे हैं वहीं उन्हें उठाने की एक कोशिश और ललक भी है और यही संवेदना एहसास कविता की आत्मा है i यथा-
गिरे हुए को उठाने के लिए?
मैं चौंककर पलटता हूँ
और महसूस करता हूँ
कि स्वयं के गिरने की आवाज़
सुनायी नहीं देती -
डॉ. मुकर्जी की कविता ‘लखनऊ रेसीडेंसी एक वैचारिक कविता है i ऐसे ऐतिहासिक धरोहरों को देखने के बाद एक विचारशील व्यक्ति के हृदय में जो भाव अनायास जगते हैं, यह कविता उन्ही विचारों का आइना है जिसमे कई शेड्स हैं, जो मन को झिंझोड़ कर रख देते है i जैसे –
सैनिकों के मौन चीत्कार से सुसज्जित,
खण्डहरों को देख रहा हूँ
जहाँ
ईंटों के दरार से नित्य उगते
पीपल और वट की
नयी पुरानी कोंपलों में,
इतिहास ठिठका है
संचालक मनोज शुक्ल ‘मनुज’ की कविता में ऊहापोह की स्थिति है I कैसा लगता है जब किसी के मन का दर्पण चिटकता है I इस कविता में मानवीकरण है और ‘किरच- किरच झल्लाई है’ में इसकी चरम परिणति है i कविता की बानगी इस प्रकार है –
मन का दर्पण चिटक रहा है, किरच-किरच झल्लाई है I
इधर गिरूँ तो कुआं उफनता उधर गिरूँ तो खाईं है II
‘वक्त रुखसत का है और आँख भर आयी हैI आज उदासी टहलने इधर आयी है II’ यह अंदाज था सुरीले अंदाज के आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ का, जिन्होंने एक विदाई गीत पढ़कर सभी को चश्मेतर कर दिया I
डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव ने चार चौकलों से निर्मित पादाकुलक छंद में अन्त्यानुप्रास की छटा बिखेरते हुए ‘अभिलाषा ‘ शीर्षक से अपनी कविता कुछ इस प्रकार पढ़ी -
हा! प्रिय आते, रस सर्साते , मधु बरसाते, मैं मदमाती I
पुहुप दुनैय्या, लावा-लैय्या भर-भर मैया मैं ले आती II
डॉ. श्रीवास्तव ने मातृभाषा हिन्दी के सम्मान में भी एक कविता सुनायी, जिसकी बानगी इस प्रकार है –
भारत-माता के भाल-मध्य शोभित जो उस बिंदी की जय I
है देव-नागरी पर्णों में तो पर्णों की चिंदी की जय I
स्वरगंगा अपनी संस्कृत है तो भाषा कालिंदी की जय I
शत-कोटि सपूतों के मुख से निर्झर बहती हिन्दी की जय I
कवयित्री संध्या सिंह अपनी कविता में हौसलों को उड़ान देने के साथ ही सावधान भी करती हैं कि कोई बड़ा काम आसान नहीं होता I उसके लिए साहस के साथ संकल्प की भी आवश्यकता है I वह कहती हैं कि –
थाह नापने की अभिलाषा, सागर में डूबो I
सीने पर पत्थर रख-रख जल पर तिरना है II
कवयित्री आभा खरे ने दो समकालीन कवितायें सुनाईं i पहली कविता में मानव की मनःस्थिति के अनुसार बारिश के प्रभावों की बदलती स्थिति का मोहक वर्णन हुआ I दूसरी कविता में अकेलेपन का दर्द है और मानव के मन का भय भी जो जीवन में आता-जाता रहता है और एक बार वह फिर कभी न आने के लिए गया क्योंकि तब तक आत्मविश्वास दृढ़ हो चुका था I शायद भय भी एक आवश्यक उपादान है आत्मावलंबी बनने के लिए i कविता की बानगी देखिये-
उसका बार-बार लौट आना
महज़ लौटना नहीं था
वो सिखा रहा था मुझे
कि ! चल सकूँ मैं
बग़ैर उसके ,
उसकी उँगली थामे बिना
और इस तरह
शायद वो बरी कर रहा था
खुद को भी
मुझे दी गयी अकेलेपन की सज़ा से
अध्यक्ष भूपेन्द्र सिंह ‘होश’ ने कुछ बेहतरीन ग़ज़लें सुनायीं I उनकी एक रवायती ग़ज़ल इस प्रकार है –
हवा में जब खुशबू सी घुली मालूम होती है I
हमे उस शख्स की मौजूदगी मालूम होती है II
ग़ज़ल की खुशबू से महकते मन को आभा जी के उदात्त आतिथ्य का भी भरपूर साथ मिला I मेरा मन जाने क्यों रेसीडेंसी के वीराने में भटकने लगा I दो एक बार मैं भी जा चुका हूँ I उस उजाड़ ईंटों के जंगल में इतिहास दफ़न है I
कैसे-कैसे राष्ट्र भावना धीरे-धीरे व्याप्त हुयी ?
कितने संघर्षों के तप से वह दासता समाप्त हुयी?
मुक्त हवा में साँस ले रहे किंतु कभी क्या यह सोचा
कितने उत्सर्गों से हमको स्वतंत्रता यह प्राप्त हुई ? (16,14 )
-सद्यरचित
(मौलिक /अप्रकाशित )
Tags:
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |