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आदरणीय साहित्य प्रेमियो,

जैसाकि आप सभी को ज्ञात ही है, महा-उत्सव आयोजन दरअसल रचनाकारों, विशेषकर नव-हस्ताक्षरों, के लिए अपनी कलम की धार को और भी तीक्ष्ण करने का अवसर प्रदान करता है. इसी क्रम में प्रस्तुत है :

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-166

विषय : "गाँव, शहर और जिंदगी"

आयोजन अवधि- 14 सितंबर 2024, दिन शनिवार से 15 सितंबर 2024, दिन रविवार की समाप्ति तक अर्थात कुल दो दिन.


ध्यान रहे : बात बेशक छोटी हो लेकिन 'घाव करे गंभीर’ करने वाली हो तो पद्य- समारोह का आनन्द बहुगुणा हो जाए. आयोजन के लिए दिये विषय को केन्द्रित करते हुए आप सभी अपनी मौलिक एवं अप्रकाशित रचना पद्य-साहित्य की किसी भी विधा में स्वयं द्वारा लाइव पोस्ट कर सकते हैं. साथ ही अन्य साथियों की रचना पर लाइव टिप्पणी भी कर सकते हैं.

उदाहरण स्वरुप पद्य-साहित्य की कुछ विधाओं का नाम सूचीबद्ध किये जा रहे हैं --

तुकांत कविता, अतुकांत आधुनिक कविता, हास्य कविता, गीत-नवगीत, ग़ज़ल, नज़्म, हाइकू, सॉनेट, व्यंग्य काव्य, मुक्तक, शास्त्रीय-छंद जैसे दोहा, चौपाई, कुंडलिया, कवित्त, सवैया, हरिगीतिका आदि.

अति आवश्यक सूचना :-

रचनाओं की संख्या पर कोई बन्धन नहीं है. किन्तु, एक से अधिक रचनाएँ प्रस्तुत करनी हों तो पद्य-साहित्य की अलग अलग विधाओं अथवा अलग अलग छंदों में रचनाएँ प्रस्तुत हों.
रचना केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, अन्य सदस्य की रचना किसी और सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी.
रचनाकारों से निवेदन है कि अपनी रचना अच्छी तरह से देवनागरी के फॉण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें.
रचना पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे अपनी रचना पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं.
प्रविष्टि के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें.
नियमों के विरुद्ध, विषय से भटकी हुई तथा अस्तरीय प्रस्तुति को बिना कोई कारण बताये तथा बिना कोई पूर्व सूचना दिए हटाया जा सकता है. यह अधिकार प्रबंधन-समिति के सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा, जिस पर कोई बहस नहीं की जाएगी.
सदस्यगण बार-बार संशोधन हेतु अनुरोध न करें, बल्कि उनकी रचनाओं पर प्राप्त सुझावों को भली-भाँति अध्ययन कर संकलन आने के बाद संशोधन हेतु अनुरोध करें. सदस्यगण ध्यान रखें कि रचनाओं में किन्हीं दोषों या गलतियों पर सुझावों के अनुसार संशोधन कराने को किसी सुविधा की तरह लें, न कि किसी अधिकार की तरह.

आयोजनों के वातावरण को टिप्पणियों के माध्यम से समरस बनाये रखना उचित है. लेकिन बातचीत में असंयमित तथ्य न आ पायें इसके प्रति टिप्पणीकारों से सकारात्मकता तथा संवेदनशीलता अपेक्षित है.

इस तथ्य पर ध्यान रहे कि स्माइली आदि का असंयमित अथवा अव्यावहारिक प्रयोग तथा बिना अर्थ के पोस्ट आयोजन के स्तर को हल्का करते हैं.

रचनाओं पर टिप्पणियाँ यथासंभव देवनागरी फाण्ट में ही करें. अनावश्यक रूप से स्माइली अथवा रोमन फाण्ट का उपयोग न करें. रोमन फाण्ट में टिप्पणियाँ करना, एक ऐसा रास्ता है जो अन्य कोई उपाय न रहने पर ही अपनाया जाय.

फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो - 14 सितंबर 2024, दिन शनिवार लगते ही खोल दिया जायेगा।

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मंच संचालक

ई. गणेश जी बाग़ी 
(संस्थापक सह मुख्य प्रबंधक)
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स्वागतम

सादर अभिवादन 

गांव शहर और ज़िन्दगीः दोहे

धीमे-धीमे चल रही, ज़िन्दगी अभी गांव।
सुबह रही थी खेत में, शाम चली है ठांव।। (1)

सुस्ताई थी दोपहर, ठंडी - ठंडी छांव ।
तन्द्रा में भी ढल रही, हौले-हौले पांव ।। (2)

धूप नरम जब हो गयी, काम   हुआ   पुरजोर ।
पौध-धान अब हुमकती, चहक उठा हरछोर।। (3)

झूम उठा है मन खुशी, देख  खेत  की ओर ।
मन्द- मन्द बहती हवा, नाच रहा मन-मोर ।। (4)

यौवन की दहलीज पर, गांव गया है छूट ।
रिश्ते - नाते दोस्त सब, हाल गये हैं टूट ।। (5)

ठौर- ठौर यायावरी, पीपल- छांव विलास ।
दिवास्वप्न होते शहर, मुक्त हास परिहास।। (6)

पनघट छूटा गांव का, नौंक- झौंक उल्लास।
पनिहारिन गाली मधुर, होली भांग झकास।। (7)

रूखी नीरस ज़िन्दगी, शहर सड़क रफ्तार।
वदहवास जीवन हुआ, अर्थ-हीन विस्तार ।। (8)

बेमतलब की चीख - पौं, ज्यौं    पागल  भरतार ।

छोड़कर शिशु स्कूल प्रिया, करना झाड़-बुहार।। (9)

ज़िन्दगी शतरंज हुई, हाथी    घोड़ों      रार ।

उलझाकर दो ऊंट को, पैदल हुआ फ़रार ।। (10)

मौलिक व अप्रकाशित

पनघट छूटा गांव का, नौंक- झौंक उल्लास।
पनिहारिन गाली मधुर, होली भांग झकास।। (7).....ग्राम्य जीवन की उत्तम झलक प्रस्तुत की है आपने इस दोहे में. 

आदरणीय चेतन प्रकाश जी सादर, प्रदत्त विषय पर सुन्दर दोहावली रची है आपने. कुछ दोहों में अवश्य कुछ परिमार्जन की आवश्यकता है. 

छोड़कर शिशु स्कूल प्रिया/ज़िन्दगी शतरंज हुई.... दोहों के इन विषम चरणों में गेयता के लिए परिमार्जन कर लें. सादर. 

   

गीत

 

छत पर खेती हो रही

खेतों में हैं घर

 

धनवर्षा से गाँव के,

सूख गये तालाब

शहरों के आने लगे

तब आँखों में ख्वाब

फोर लेन सड़कें बनीं

दिल गाँवों का चीर

बदल गयी हर एक के

जीवन की तस्वीर

 

पास पुरुष के कार है

महिला के ज़ेवर

 

पिसा-पिसाया  मिल रहा

गेहूँ देकर दाम

किन्तु न मिलता ढंग का

कहीं एक भी काम

बच्चों की देने लगे

मोटी-मोटी फ़ीस

और पेट को पालने

रहे एडियाँ घीस

 

छोड़ किसानी गाँव की

बन बैठे लेबर

 

घर आँगन वाला गया

छूट गया दालान

दो कमरों का पा लिया

आकर शहर मकान

मात-पिता के संग हैं

सारे मिलकर आठ

गाँवों का कीचड़ नहीं

शहरों के हैं ठाठ

 

भीड़ भरे बाज़ार हैं

सड़कों पर बिस्तर  

 

मौलिक/अप्रकाशित.

 

  कृपया  दूसरे बंद की अंतिम पंक्ति 'रहे एडियाँ घीस' को "करें जाप बत्तीस' पढ़ें. सादर क्षमाप्रार्थी.

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