आदरणीय साथियो,
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लघुकथा : युद्ध
दिल को देखो चेहरा न देखो,
चेहरों ने लाखों को लूटा,
दिल सच्चा और चेहरा झूठा...
हाँ, यही गीत था जिसने मेरी जिंदगी प्रभावित कर दी। वह सुंदर तो नही था, किंतु बहुत प्यार करता था, और मैं उसके प्यार में डूब चुकी थी। माँ, पापा और भाईयों के विरोध के बावजूद मैंने अंतरजातीय विवाह कर लिया। परिणामस्वरूप मेरे और उसके घरवालों ने हम दोनों से संबंध समाप्त कर लिए। वह सरकारी दफ्तर में बाबू था। हम दोनों बहुत ही खुश थे, दो वर्ष कैसे बीत गये पता ही न चला, इसी दौरान हम दो बेटियों के माँ-पापा बन गए। उसके बाद पता नही उसे क्या हो गया। हर पल उसे आशंका होने लगी कि मैं बहुत ही सुंदर हूँ तो उसे छोड़ किसी और से संबंध बना लूँगी। धीरे-धीरे यह बात उसके मन-मस्तिष्क में गहराई तक बैठती चली गयी और वह मानसिक रुप से बीमार हो गया। डॉक्टरी इलाज से भी कुछ ख़ास फर्क नही पड़ा। एक दिन वह अचानक घर-परिवार और नौकरी छोड़ कहीं चला गया। तनख्वाह बंद हो गयी और मैं दोनों बेटियों को लेकर आर्थिक परेशानी का सामना करने लगी हूँ। कुछ लोग ने मदद भी की। किन्तु मेरे मायके और ससुरालवालों ने कोई मदद नही की। उनका कहना था - जैसी करनी वैसी भरनी। बेटियों के सामने रो भी नही पाती, जाने कितनी बार मुँह में कपड़ा ठूँसकर रो लेती हूँ ताकि बच्चे न जान सकें। एक प्राईवेट स्कूल में नौकरी भी कर रही हूँ किन्तु वहाँ से मिलने वाली राशि अपर्याप्त है। मैं जीवन से थक चुकी हूँ और अपनी जीवन लीला समाप्त कर रही हूँ। यह सुसाइड नोट इसलिए लिख रही हूँ ताकि मेरी मौत का जिम्मेदार किसी और को न ठहराया जा सके।
अभागिन
राजकुमारी
इससे पहले कि वह कुछ करती, दोनों बच्चियाँ दौड़ती हुई कमरे में आयीं और उसके गले में बाँहें डालते हुए बोलीं,
“मम्मी... प्यारी मम्मी! बहुत भूख लगी है, कुछ खाने को दो ना...”
मुट्ठी में पकड़े उस कागज़ के टुकड़े को भींचते हुए वह रसोई में चली गयी । खिचड़ी बनाने के लिए पतीला चूल्हे पर रखा... और चूल्हे में कागज़ का टुकड़ा।
दूर कही रेडियो पर बज रहा था...
हार नहीं मानूँगा, रार नई ठानूँगा,
काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूँ,
गीत नया गाता हूँ, गीत नया गाता हूँ।
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
हार्दिक स्वागत आदरणीय सर जी विषयांतर्गत नारी विमर्श की बहुत ही मार्मिक बढ़िया सृजन बढ़िया आग़ाज़ और अंजाम तक विचारोत्तेजक। हार्दिक बधाई जनाब इंजी. गणेश जी 'बाग़ी' साहिब। शीर्षक इससे बेहतर भी संभव थे।
प्रस्तुति पर एकमात्र टिप्पणी हेतु बहुत बहुत आभार आदरणीय उस्मानी जी । यदि कोई बेहतर शीर्षक आपके संज्ञान में हो तो सुझाव देने की कृपा हो ।
सादर ।
धन्यवाद सर जी। मुझे लगा कि गीतों की पंक्ति से ही या रचना में से ही शीर्षक बन सकते हैं। यथा : काल के कपाल पर या टुकड़े
आप द्वारा सुझाये गये दोनो शीर्षक लघुकथा का प्रतिनिधित्व नही कर पा रहे हैं । वास्तव में इस लघुकथा का शीर्षक मैंने 'जंग' रखा था और कुछ माह पहले ही सृजित किया था किंतु पोस्ट नही किया था ।
फिर इस आयोजन में प्राप्त विषय को ही शीर्षक बना लिया ।
जी, शुक्रिया मार्गदर्शन हेतु।
आ. भाई गणेश जी, सादर अभिवादन। एक सार्थक और संदेशपरक लघुकथा के लिए बहुत बहुत बधाई।
बहुत बहुत आभार भाई लक्ष्मण जी ।
लगे रहो (लघुकथा) :
नहीं, न तो मैं रणभूमि में हूँ और न ही मृत्युशैया पर .... मैं तो प्रयोगशाला में हूँ! लड़ रही हूँ लकवे के प्रकोप से! और मुझे चाहने वाले भी लड़ रहे हैं जीतने के लिये... मुझे पहले जैसा पाने के लिये। फ़ीज़ियोथैरेपिस्ट भी एक ऐसी लड़ाई लड़ रहे हैं जिसका नतीज़ा उन्हें भी नहीं मालूम मेरे न्यूरोलोजिस्ट डॉक्टर की तरह। मेरा घर... मेरा कमरा या मेरे और उन सबके जज़्बात एक प्रयोगशाला ही तो बन गये हैं! क्रियायें-प्रतिक्रियाएं, व्यायाम,खान-पान और दवाइयाँ सब कुछ प्रयोग हैं प्रयोगशाला में। मेरी संतान और पतिश्री सहित अज़ीज़ रिश्तेदार भी प्रयोग ही हैं। मैं चल-फ़िर नहीं पा रही हूँ... चलेगा... लेकिन मेरी भाषा चली गई... बोल भी नहीं पा रही हूँ... तो अपनी बात कह भी नहीं पा रही हूँ। संबंधित दिमाग़ी कोशिकाओं से जूझ रही हूँ। सुस्त या निकम्मे हो चुकी अपनी वाणी और शब्दकोश से जूझ रही हूँ। परिजनों की भावनाओं और झुँझलाहट और उनके भविष्य की चिंताओं से जूझ रही हूँ। मुझे पता है कि वे भी जूझ रहे हैं ... स्वार्थों से या दायित्वों से या पैसों की आवक-जावक की जद्दोजहद से? कुछ समझ पा रही हूँ... कुछ नहीं। रो रही हूँ ... परिजन भी रो रहे हैं... बल्कि ये कहूँ कि भोग रही हूँ और वे भी भोग रहे हैं अपनी कथनी और करनी पर... मेरी सेहत संबंधित अपनी लापरवाहियों पर.. अपेक्षाओं और उपेक्षाओं पर। ओह... इतना भी क्या सोचना... कितनी उम्र बची है मेरी ... मर भी जाऊं तो क्या... लेकिन ठीक हो जाऊं तो? बड़ी कशमकश है। ये लड़ाई... ये कशमकश कब तक चलेगी, पता नहीं! वे सब लोग मेरे लिए कब तक लगे रहेंगे, पता नहीं! लेकिन मुझे इतना पता चल गया है कि अपनी ही सेहत के संबंध में हर इंसान को स्वार्थी और गंभीर ही रहना चाहिए। सेहत गई... सब कुछ गया!
[न्यूरोलोजिस्ट = तंत्रिका विज्ञानी/स्नायुतंत्र विशेषज्ञ, फ़ीज़ियोथैरेपिस्ट= शारीरिक/भौतिक विज्ञानी]
(मौलिक व अप्रकाशित)
भाई इसमें कथा कहाँ है ?
धन्यवाद आदरणीय सर.जी टिप्पणी हेतु। एक शैली है.लघुकथा कहने की मेरे विचार से। मार्गदर्शन का निवेदन है।
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