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//वहाँ पर एक मस्जिद थी ओ मैखाना भी होता था
जहाँ हर शख्श जाना भी ओ अनजाना भी होता था//
क्या खूबसूरत मतला कहा भाई .............
//नजर से पूछता था- क्यों ? कहाँ ? मस्जिद को जाते हो ?
नजर का देख कर अनदेख झुक जाना भी होता था//
बिलकुल सही वस्तुस्थिति बयां की है भाई .........
//इबादत से जो आता वो बड़ा बेगाना सा मिलता
जो मयखाने से आता वो ही याराना भी होता था//
वाकई! याराना तो मयखाने का ही मशहूर है ...........
//नमाजी देखता मयकश को नफरत से हिकारत से
शराबी देखता इज्जत से , हट जाना भी होता था//
इसी नफरत और हिकारत नें तो दिलों में दूरियां पैदा की हैं .............
//कभी मैं सोचता था क्या खुदा भी देखता होगा
कि जिसका था यहाँ आना, वहाँ जाना भी होता था//
क्या बात कही है भाई ........बड़ी तगड़ी नज़र रखते हैं आप ......
//ख़ुशी को ढूंढता फिरता था क्यों इन्सान दोनों में
हर इक आबाद घर में एक वीराना भी होता था//
काश! उस ओर भी सभी की निगाहें होतीं !
मस्जिद और मयखाने की बेहतरीन मंजरकशी की आपने.......बहुत बहुत बधाई आपको ........
इबादत से जो आता वो बड़ा बेगाना सा मिलता
जो मयखाने से आता वो ही याराना भी होता था
bahut hi badhiya gazal.. Mahendra ji..bahut bahut badhai..
ख़ुशी को ढूंढता फिरता था क्यों इन्सान दोनों में
हर इक आबाद घर में एक वीराना भी होता था
मिसरे का प्रयोग बढ़िया लगा .....
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