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गजल
122 122 122
उजाले डराने लगे हैं,
अँधेरे बुलाने लगे हैं।
विभा दीपकों से मिली थी,
जलाते ! बुझाने लगे हैं।
किताबें रखी थीं यहीं तो,
न माने,जलाने लगे हैं।
हुनर की कहूँ क्या?न पूछो,
मरे,कुछ ठिकाने लगे हैं।
नहीं है पता खुद,वहीअब
मुझे कुछ बताने लगे हैं।
न देखूँ, रिसाने लगे वे,
दिखें तो लजाने लगे हैं।
करूँ क्या कभी तो नजर है,
कभी वे बचाने लगे हैं।
भुलाता,न भूले कभी वे,
मुआ याद आने लगे हैं।
रही थीं धुनें चुप तभी से,
तराने सुनाने लगे हैं।
गुजरते बगल से कभी तो,
सदा गुन गुना ने लगे हैं।
बड़ी आरजू थे बसाये,
जियादा सताने लगे हैं।
"मौलिक व अप्रकाशित"@मनन

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Comment by गिरिराज भंडारी on August 11, 2015 at 10:13am

आदरणीय मनन भाई , अच्छी गज़ल कही है , हार्दिक बधाइयाँ आपको ।

Comment by Manan Kumar singh on August 10, 2015 at 5:58pm
आदरणीय मिथिलेश जी,प्रेरणापरक टिप्पणी हेतु आभार आपका

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 10, 2015 at 12:05pm

आदरणीय मनन जी, बढ़िया ग़ज़ल हुई है शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं.

कृपया ध्यान दे...

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