परम आत्मीय स्वजन,
ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे की पांच वर्ष पूर्ण करने पर आप सबको ढेर सारी बधाईयाँ और भविष्य के लिए शुभकामनाएं| 60 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा -ए-तरह हैदराबाद के शायर जनाब अली अहमद जलीली साहब की एक बहुत ही ख़ूबसूरत ग़ज़ल से लिया गया है|
"इश्क़ में रहज़न-ओ-रहबर नहीं देखे जाते"
2122 1122 1122 22
फाइलातुन फइलातुन फइलातुन फेलुन
मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 26 जून दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 27 जून दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.
नियम एवं शर्तें:-
विशेष अनुरोध:-
सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें |
मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....
मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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आदरनीया श्री सुनील, उम्दा गज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई हो
तिश्नलब हो के समंदर नही देखे जाते
फ़ासले पास में रहकर नहीं देखे जाते
सामना मौत से पल-पल हो अगरचे मंजूर
गैर की बांह में दिलबर नहीं देखे जाते
इश्क मुझको हो जायेगा न उठा यूँ पर्दा
ख़्वाब आँखों में उतरकर नहीं देखे जाते
वस्ल की बात पे हाँ जबसे की है उन्होंने
खिड़कियाँ बंद हैं पैकर नहीं देखे जाते
ये मुहब्बत की डगर सबको है चलनी तन्हा
"इश्क़ में रहज़न-ओ-रहबर नहीं देखे जाते"
बेवफा लाख ही ठहरा वो प अबभी मुझसे
उसकी राहों के ये पत्थर नहीं देखे जाते
हर कदम जिसके लिए हमने दुआए माँगी
उसके हाथों में ही खंजर नही देखे जाते
मौलिक व् अप्रकाशित
बहुत ख़ूब ..बधाई
हार्दिक आभार! आ० nilesh सर!
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