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मै शापित पत्थर कलजुग में राम कहाँ से लाऊँ

गीत

*********              

मै शापित पत्थर कलजुग में राम कहाँ से लाऊँ

मै दरिद्रता से दरिद्र हूँ

तुम नृप के भी हो नृपराज

पूर्ण चन्द्र की दीप्ति तुम्हारी

मै हूँ अमा की काली रात  

तुम पुकार लो मुझको ऐसा नाम कहाँ से लाऊँ

मै शापित पत्थर कलजुग में राम कहाँ से लाऊँ

 

भाग दौड़ के इस नवयुग में

मै अपंग सी हूँ लाचार

और दिखावे की नगरी में

बिन चाँदी की मैं बीमार

चकाचौंध कर दे सबको, परिणाम कहाँ से लाऊँ

मैं शापित पत्थर कलजुग में राम कहाँ से लाऊँ

 

तुम मृगतृष्णा में भटके  

सच के पानी से दूर बहुत

छद्मवेश के मीत प्रीत के

नीचे छवि है क्रूर बहुत

सत्य विजित हो ऐसा मैं परिणाम कहाँ से लाऊँ

मैं शापित पत्थर कलजुग में राम कहाँ से लाऊँ

           *************   

मौलिक एवँ अप्रकाशित

 

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 25, 2013 at 11:14am

आदरणीय सौरभ भाई , आपकी सराहना ने  मुझे कल्पनातीत खुशी दे दी , उत्साह वर्धन के साथ साथ !! बहुत बहुत आभार !! 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 25, 2013 at 12:26am

इस सुन्दर सात्विक बिम्ब को आपने जीवन्त कर दिया आदरणीय. ..

तुम मृगतृष्णा में भटके  

सच के पानी से दूर बहुत

छद्मवेश के मीत प्रीत के

नीचे छवि है क्रूर बहुत

सत्य विजित हो ऐसा मैं परिणाम कहाँ से लाऊँ

इस गीत की विवेचना ने देर तक बाँधे रखा. एक पाठक के तौर पर बहुत कुछ सोचता रहा मैं, जो कि इस प्रस्तुति की सफलता है.

आपका सादर धन्यवाद तथा भूयोभूय बधाइयाँ.

सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 16, 2013 at 9:48pm

बहुत बहुत शुक्रिया , प्राची जी हौसला अफज़ाई के लिये , मुझे बहुत खुशी है कि आपने पूरी तरह वही समझी जिसे मै रचना के माध्यम से कहना चाहता था ! आपने मेरी महनत सफल कर दी ! पुनः आभार !


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on August 16, 2013 at 5:06pm

आदरणीय गिरिराज भंडारी जी

संबंधों में व्याप्त बेरुखी और आर्थिक ,शाब्दिक ,मानसिक क्रूरता किसी को बेबस कर शापित पत्थर सी ज़िंदगी जीने को मज़बूर करते हों और अभिशप्त प्रस्तर को ज़िंदगी मिल पाने का हर मार्ग अवरुद्ध हो.... ऐसी विवश पीड़ा को शब्द देती आपकी यह भावाभिव्यक्ति बेहद मर्मस्पर्शी है..

हार्दिक शुभकामनाएँ 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 14, 2013 at 7:49pm

बहुत बहुत आभार !! लक्ष्मण भाई जी , आपने सही कहा मै नया सद्स्य हूँ ।  पुनः धन्यवाद !!

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on August 14, 2013 at 7:04pm

बहुत सुन्दर भावों की गीत रचना, विशेषतः अंतिम छंद तो बहुत पसंद आया -

तुम मृगतृष्णा में भटके  

सच के पानी से दूर बहुत

छद्मवेश के मीत प्रीत के

नीचे छवि है क्रूर बहुत

सत्य विजित हो ऐसा मैं परिणाम कहाँ से लाऊँ

मैं शापित पत्थर कलजुग में राम कहाँ से लाऊँ ---- वाह ! हार्दिक बधाई श्री गिर्राज भंडारी जी | मै संभवतया आपकी पहली रचना  ही देख रहा है | स्वागत है आपका 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 14, 2013 at 10:52am
वसुन्धरा जी,आपका हार्दिक आभार !!
Comment by Vasundhara pandey on August 14, 2013 at 8:52am

बहुत ही सुन्दर रचना...सादर बधाई आपको..!!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 13, 2013 at 7:26pm

वन्दना जी बहुत बहुत आभार , आपको गीत पसन्द आया !!

Comment by Vindu Babu on August 13, 2013 at 5:45pm
//तुम नृप के हो नृपराज// आदरणीय मॅं जहाँ तक समझ पा रही हूं ईश्वर सम्बोधित करते हुए लिखा है आपने!
शापित पत्थर अहिल्या की तरफ इशारा होगा आपका?
यदि मैं सही समझ रही तो आपने सुस्पष्ट चित्र प्रस्तुत किया कलयुग का।
सादर बधाई इस सफल रचना के लिए आदरणीय!

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