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सुहाने ख्वाब से मुझको उठा गुज़री

ग़ज़ल लिखने का एक प्रयास और किया है मैने, प्रकृति की सुंदरता का हमेशा से ही कायल रहा हूँ इसलिए मेरी रचना प्रकृति के आस पास ही रहती है. 

वज्न -1222 1222 1222

हजज मुसद्दस सालिम

सुहाने ख्वाब से मुझको उठा गुज़री

वो लहराती हुई बादे सबा गुज़री

 

दिखी थी पैरहन वो धूप की लेकर

कभी शबनम की वो ओढ़े कबा गुज़री

 

फ़िज़ा सरशार भीगी सी ज़मीं भी है

नमी ज़ुल्फ़ों की है या फिर घटा गुज़री

 

कभी सरगोशियों से वो मुझे चौंका

हसीं मुस्कान होंठों में दबा गुज़री

 

भुला सकता नहीं वो लमहा जिसमें ये

तसव्वुर की लहर मुझको डुबा गुज़री

उफ़क के छोर तक है उसका ही जलवा

सरापा दिलकशी से वो नहा गुज़री

-मौलिक अप्रकाशित*

*संशोधित

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Comment

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Comment by Abhinav Arun on August 7, 2013 at 5:50pm

बहुत खूब कही लाजवाब है शिज्जू जी

Comment by वीनस केसरी on July 27, 2013 at 1:11am

वाह वा भाई जी बहुत शानदार
क्या कहने ... मज़ा आ गया

पोस्ट पर देर से आ सका इसके लिए अफ़सोस है


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 18, 2013 at 8:03pm

आपकी ग़ज़ल भली लगती है भाईजी.

जो त्रुटि थी उसपर बात हो गयी है.   प्रयासरत रहें

शुभेच्छाएँ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on July 17, 2013 at 4:27pm

आपका बहुत बहुत धन्यवाद


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on July 17, 2013 at 4:25pm

सही कहा संदीप जी आपने, टाइपिंग त्रुटि हो गयी दर अस्ल ''वो'' नही लिखा
"कभी शबनम की वो ओढ़े कबा गुज़री" ये ऐसा है

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on July 17, 2013 at 2:19pm

bahut sundar aadarneey waah waah waah

daad kubool karen

कभी शबनम की wo ओढ़े  कबा गुज़री is misre ko ek baar dekh len ...........

Comment by Shyam Narain Verma on July 16, 2013 at 1:19pm
बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर रचना के लिए ……………..

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