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हे मन.....
तोङ दे सारे बन्धन.

तोङ दे सारे घमन्ड,छोङ दे मद़पाना हॆ तुझे अमरत्व का पद

चलना हॆ तुझे सदॆव. सतत
रहना हॆ सदा संघर्षमय प्रयासरत.

अगर तुम्हे बाँधगया कोई मायाजाल
तो कॆसे पाओगे वह शिखर विशाल

जिसके लिये तुम हो सदा से अधीर
फिर बार बार नही मिलेगा तुम्हे नश्वर शरीर

चलते ही रहना हॆ तुम्हे कंटकों पर शूलों पर
गूँजे तुम्हारी कृतियों से अवनि ऒर अम्बर 
इसके लिये जलाना होगा लहू की हर धार
चूकना मत यदि न्योछावर करना पङे स्वप्राण भी बार बार.

उपवन तुम्हे कम मिलेंगे पतझङ अधिक
हे दूर देश के पथिक.
फिर भी तुम्हे पानी हॆ मंजिल
तो जोङो परम परमात्मा से दिल
तोङो जग से नाता मोङो अपना जीवन.. .

हे मन.. तोङ दे सारे बन्धन..
तोङ दे सारे बन्धन.......


           मौलिक व अप्रकाशित

                     पंकज.
       

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Comment

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Comment by Saurabh Pandey on June 6, 2013 at 12:02am

भाई पंकज जी, विशेष मनोदशा और मनोस्थिति की रचना के लिए हा्दिक धन्यवाद

शुभेच्छाएँ

Comment by विजय मिश्र on June 4, 2013 at 4:20pm
सात्विक उपदेश और अध्यात्मिक मार्गदर्शन से कतई कम नहीं है ,पंकजजी ,आपकी यह कविता .बहुत सुंदर भाव किन्तु क्या विदेह होना कम कठिन है , बंधन में रह इससे मुक्त जीना एक जटिल प्रक्रिया है .एक साधना है .बधाई प्राप्त करें .

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