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आज युवा वर्ग जो "दामिनी " प्रकरण में समवेत स्वर में नारे लगा रहा है उनसे भी एक प्रश्न है ...जब हनी सिंह जैसे गायकों के शोज देखते हैं और खुशी से झूमते हैं (गाने के शब्द होते हैं :-"आजा चीर दूँ में तेरी पटियाला सलवार " गाने वाला Honey Singh.या मैं बलात्कारी हूँ )तब उनकी यह सोच कहाँ जाती है क्या यह सब एक संस्कारी सभ्यता का बलात्कार नहीं है ?क्या इस प्रकार के आयोजन इन दुर्घटनाओं की  प्रस्तावना नहीं हैं.?क्या आज इस प्रकार के लोगों के  विरुद्ध भी आम जन को नही खड़ा होना चाहिए ?.. बॉलीवुड के लोग "दामिनी " के समर्थन में उतरे है पर क्या वहीं से इस प्रकार के काण्ड की रूपरेखा नहीं तैयार होती .....जिम्मेदार सिर्फ सरकार नहीं समाज के जिम्मेदार तबके भी बराबर के जिम्मेदार हैं ....... कड़े कानून तो बनाने ही होंगे पर कहीं न कहीं शील-अश्लील की परिधि को पहचान कर सामाजिक संस्थाओं को भी जिम्मेदारी उठानी होगी |

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Replies to This Discussion

कथ्य और तथ्य दोनों गंभीर हैं. इस हेतु सीमाजी को मेरा सादर आभार.

मैंने तो खैर ऐसे गीत (उद्धृत दोनों ही) नहीं सुने हैं लेकिन इसी क्रम में मैं भोजपुरी के बहुसंख्य तथाकथित प्रचलित गीतों को भी सम्मिलित करना चाहूँगा. पिछले दस वर्षों में भोजपुरी गीतों का भोंडापन  (यह शब्द भी कितना असक्षम लगता है उन गीतों के लिए !)  हर अतिरेक की सीमाएँ लांघ गया है. आज से बीस-बाइस वर्षों पहले बलेसर राम के मात्र ’ऊँह-ऊँह’ पर लोटमलोट होने जाने वाले श्रोता आज के तथाकथित गीतों को परिवार में समवेत रूप से सुन नहीं सकते.  भोजपुरी गीतों का परिचय ही मानों यही गीत हो गये हैं. ऐसे निहायत भोंड़े, फूहड़, परले दर्ज़े के अश्लील गीतों को सार्वजनिक साधनों (बसों, ट्रालियों, टेम्पो आदि) में सुनने वाले और जबर्दस्ती अन्य सभी यात्रियों को सुनाने वाले लोगों से किस मानसिक उन्नयन की अपेक्षा हो सकती है ?

मैं किसी कलाकार या गायक का विरोध नहीं कर रहा, न सीमाजी के इस पोस्ट का यह आशय ही है, किन्तु, जबतक हम एक सिरे से ऐसी कोई कुचेष्टा या अपकर्म को नकारेंगे नहीं, इस वातावरण में लोगों का आचरण सभ्य और सम्मानजनक नहीं हो सकता.

आदरणीया सीमा जी,

संस्कृति के पतन के ये नमूने भी हैं और ये ही विषबेल सी पनपती जाती कुत्सित मानसिकता को पोषण देने के तत्व भी हैं..

ऐसे गाने जो सरे आम बजते हैं और किसी भी शरीफ व्यक्ति की नज़रें झुक जाती है, गाँव गांव हर नुक्कड़ पर इंसानियत को हैवानियत में बदलने की हवा देते हैं.

बिलकुल सही कहा आपने बौलीवुड के सितारे जो दामिनी प्रकरण पर संवेदना जता रहे हैं, ऐसे प्रकरणों की रूपरेखा की नींव इन्ही की रखी हुई है.

कड़े कानून को शील अश्लील की नियत परिधि के सापेक्ष बनाए जाने आज की ज्वलंत ज़रुरत है. 

पर सोचती हूँ , शील अश्लील की परिधि का निर्धारण क्या कर भी सकेगा ये समाज??

अभी हाल ही में शहर के एक गणमान्य , सुशिक्षित, सुसंस्कृत, सभ्यतम व्यक्ति के यहाँ विवाह की रिसेप्शन में जाना हुआ, बस क्या अश्लीलता ही हदें पार थी, डी जे ग्रुप ख़ास दिल्ली से बुलवाया गया था...बस आगे कहना मुश्किल  है ..

हमारे बच्चे इतनी नन्ही उम्र में घूम घूम कर क्या देखते हैं, और क्या अवशोषित करते हैं, फिर अपने ही घरों में उसे कैसे कब कहाँ जोड़ कर देखते हैं, ये बहुत शोचनीय होता जा रहा है.

समाज की ऐसी दिशाहीनता के  विरुद्ध भी जन जागृति और आन्दोलन बेहद ज़रूरी है.

सामाजिक संस्थाओं को ज़िम्मेदारी उठानी होगी और इसमें मीडिया का रोल भी विशेष मायने रखता है. 

सादर.

आपने प्रसंगानुरूप और भी गीतोँ की बात की है सौरभ जी इस सन्दर्भ में राजस्थानी हरियाणवी पंजाबी लोक गीतोँ की भी बात की जा सकती है |

अकसर ऑटो या बस में ऐसे गीतोँ को बजते सुना जा सकता है सार्वजानिक स्थानों पर सिगरेट पीने पर रोक लगाई गयी क्यों कि इससे दूसरों का शारीरिक स्वास्थ प्रभावित होता है ..पर मानसिक स्वास्थ्य की बात कोई नहीं करता | सबसे पहले मूल कारणों की बात करनी चाहिए जो प्राकृतिक urges हैं उन्हें संयम से ही नियंत्रित किया जा सकता है |जब कोई  इस प्रकार की मानसिक बीमारी और उसका इतना भयंकर परिणाम सामने आता है  तब भारतीय योग विज्ञान की वैज्ञानिकता और सार्थकता पूरी तरह से प्रतिस्थापित हो जाती है जिसका मूल ही चरित्र निर्माण ,नियम और संयम पर आधारित है | इच्छाओं के दमन और उनके संयमन का अंतर लोगों को समझना चाहिए कानून इच्छाओं का दमन कर सकता है उन्हें संयमित नहीं | फिर कानून तो सिर्फ उन्ही अवस्थाओं तक सीमित हो जाता  है न जिनकी रिपोर्ट  करवाई जाती |  जिस समाज में इस प्रकार की घटनाओं को रोकने के लिए इतना बड़ा आन्दोलन खडा हुआ क्या वही समाज घरो में लड़कियों को हिम्मत और हौसला देनी की बात को सहजता से अनिवार्य मान कर स्वीकार करेगा लड़कियों का moral down करने में सबसे बड़ी भूमिका उसके परिवार की होती है जो वास्तव में एक बेटी को नहीं बल्कि पराये धन की परवरिश करते हैं और हमेशा कोशिश रहती है कहीं लड़की के चरित्र पर तेज़ स्वभाव की होने का तमगा न लटक जाए (इस प्रकार की घटनाओं का विरोध करने के लिए मानसिक दृढ़ता,और स्वभाव के किसी एक किनारे पर कठोरता और हिम्मत तो पालनी ही पड़ेगी ).परिवार वाले नहीं चाहते ऐसी किसी भी घटना से लड़की का नाम जुड़े जिससे उन्हें उसके लिए ससुराल तलाशने में दिक्कत हो .......क्योंकि कोई भी भारतीय ससुराल दबंग(जिसमे गलत का विरोध करने की हिम्मत हो ) बहू नहीं चाहता और हाँ यहाँ ये भी बताना ज़रूरी है की भारतीय परिवारों में खानदान की बहुएं पाली जाती हैं पत्नी,माँ,चाची मामी सब इसके by products हैं| इन सारी मानसिक ग्रंथियों पर खुले दिमाग से सोंचना होगा 

जब इक राजनेता के प्रतिकूल बयानों के लिए हम उन्हें अनसुना या उन्हें बहिस्कृत कर दिए जाने की बात करने लग जाते हैं 

 या संतों , मौलानाओं और धर्मगुरुयों पर भड़काऊ संवादों का आरोप लगाते है और उन्हें अपनी हदों तक रहने को कहने लग जाते हैं तो , 
किंचित फ़िल्मी पत्रिकायों , विडिओ और हमारे देश में ही बनने वाली फिल्मों से बढने वाली अश्लीलता 
और हमारे तमाम सामाजिक , संस्कृतिक मान्यतायों और व्यवस्थायों को धुल चटाते इनके 
इंग्लिश बाज़ कलाकारों की सीमायें कहा तक हैं , इन्हें कौन सेंसर बोर्ड तय करता है ,  और (मुझे नहीं कहना चाहिए पर कहता हूँ ) उनके द्वारा फ़िल्मी तारिकायों का 
मनमाना उपभोग कोई बलात्कार से कम श्रेणी की संज्ञा नहीं कही जा सकती  है ,  परन्तु कोई भी व्यक्ति 
इस सामाजिक , वैचारिक  , संस्कृतिक बलात्कार का बड़े स्तर पर विरोध करता नज़र नहीं आता ,,,कारण  कुछ और हैं ,,,चर्चा  अपेक्षित है 
या कहू इक तरह का पेश बन चूका है इक खास समाज का जो पैसो के बल पर दिल्ली में हुयी शर्मनाक घटना को अपने स्टूडियो और काउच  पर रोज़ अंजाम देते हैं 
पर हमारे लिए तो  भाषाई सीमांकन दिखाया जाता है ,,,,कहा तो और भी बहुत कुछ जा सकता है , पर विस्मयकारी बात तो यह है कि कोई भी इस विषय पर वार्ता करने को तैयार नहीं दिखायी देता ,,,
बहिस्कार इन फिल्मों का , इनके कलाकारों ,फ़िल्मी तरिकयों और निर्देशकों का भी तो होना चाहिए और फ़िल्मी सेंसर बोर्ड का तो आप ही बेहतर जाने ..............................   

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