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नेताजी (कुण्डलिया -३)
 
नेता जी की ख्वाहिशें, बढ़े खूब व्यापार,
नेतानी की राह पर, सामाजिक उपकार |
सामाजिक उपकार, करें जब भी नेतानी,
धन लुटवाए कुढें, कि, चले नहीं मनमानी |
घोटालों के रिस्क, कमाई तिगडमबाजी,
समझे नहिं नादान, सोचते थे नेताजी ||

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on August 16, 2012 at 2:43pm
 इस कुण्डलिया प्रयास को सराहने हेतु आपका आभार आदरणीय सौरभ सर.
कि, चले नहीं मनमानी..... यह शब्द भाव को और उस भाव के कारण को भी पूर्णता से व्यक्त कर रहे हैं..
इस परिवर्तित संवर्धित पंक्ति का स्वागत है. सादर.

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 16, 2012 at 10:31am

बेहतर प्रयास हुआ है.

धन लुटवाए कुढें, चले नहिं पर मनमानी |

इस पंक्ति की गेयता को और साधा जा सकता है. सम चरण में पर को पहले ले कर या सम चरण को यह रूप दे कर कि, चले नहीं मनमानी.  यह अब लिखने वाले पर निर्भर करता है कि वह समुच्चय (totality) में रचना की पंक्तियों को कैसे लेता और पढ़ता है..

 

Comment by Er. Ambarish Srivastava on August 15, 2012 at 9:24pm

आपका स्वागत है ! सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on August 15, 2012 at 12:50pm
आदरणीय अम्बरीश जी
बहुत बहुत आभार इस कुण्डलिया को सराहने व नव ज्ञान देने हेतु... ना की जगह नहिं , ही ज्यादा उपयुक्त व प्रवाहमय लग रहा है.
पुनः आभार. सादर.
Comment by Er. Ambarish Srivastava on August 15, 2012 at 12:29am
//नेता जी की ख्वाहिशें, बढ़े खूब व्यापार,
नेतानी की राह पर, सामाजिक उपकार |
सामाजिक उपकार, करें जब भी नेतानी,
धन लुटवाए कुढें, चले ना पर मनमानी |
घोटालों के रिस्क, कमाई तिगडमबाजी,
समझे ना नादान, सोचते थे नेताजी ||//
कुंडलिया सुन्दर रचा, सुन्दर बना प्रवाह.
नेताजी अब चल पड़े, बाबा जी की राह..
बहुत-बहुत बधाई आपको ......
दोहों में 'ना' के बदले नहिं शब्द अधिक उपयुक्त माना गया है ......सादर

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