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नमस्कार आदरणीय मित्रों !

 

आप सभी का हार्दिक स्वागत है ! 

जिन्दगी इंसान से क्या-क्या नहीं कराती....प्रस्तुत चित्र में जरा इन साहब को देखिये तो ......मोटर साईकिल पर बैठ कर इस मौत के कुँए में किस कदर बेहद खतरनाक करतब दिखा रहे हैं , गौरतलब तो यह है की जब यह मोटर साईकिल इस कुँए के ऊपरी हिस्से की धार से सटकर तेजी से भागती है तो देखने वालों के रोंगटे तक खड़े हो जाते हैं..... केवल यही नहीं हमने तो ऐसे कुँए में दो-दो मोटर साइकिलों व एक  मारुति कार को एक साथ दौड़ते हुए देखा है उसे भी मारुति का चालक कर का गेट खोलकर बाहर निकले-निकले खड़े होकर ड्राइव करता है...यानि कि जरा भी चूके तो सीधी मौत ही और कुछ नहीं ........एक दूजे के प्रति समर्पण के साथ-साथ इनमें समय व रफ़्तार का सामंजस्य देखते ही बनता है.....ठीक ऐसा ही आपसी सामंजस्य यदि हम अपने-अपने कार्य-क्षेत्र में अपने सहकर्मियों के साथ बिठा लें तो जिन्दगी ही बोल उठे ........

इस बार सर्वसहमति से  'चित्र से काव्य तक प्रतियोगिता अंक -८' हेतु आदरणीय गणेश जी बागी द्वारा ऐसे चित्र का चयन किया है जिसमें स्पष्ट रूप से यही परिलक्षित हो रहा है कि..............

कुआँ मौत का जिन्दगी, खतरों का है खेल..

इसमें खुद को साधिये ,  पार लगाये मेल..

आइये तो उठा लें आज अपनी-अपनी कलम, और कर डालें इस चित्र का काव्यात्मक चित्रण !  और हाँ आप किसी भी विधा में इस चित्र का चित्रण करने के लिए स्वतंत्र हैं ......

नोट :-

(1) १७ तारीख तक रिप्लाई बॉक्स बंद रहेगा, १८  से २० तारीख तक के लिए Reply Box रचना और टिप्पणी पोस्ट करने हेतु खुला रहेगा |


 (2) जो साहित्यकार अपनी रचना को प्रतियोगिता से अलग  रहते हुए पोस्ट करना चाहे उनका भी स्वागत हैअपनी रचना को"प्रतियोगिता से अलग" टिप्पणी के साथ पोस्ट करने की कृपा करे 


(3) नियमानुसार "चित्र से काव्य तक" प्रतियोगिता अंक- के प्रथम व द्वितीय स्थान के विजेता श्री अविनाश बागडे जी व श्रीमती सिया सचदेव जी इस अंक के निर्णायक होंगे और उनकी रचनायें स्वतः प्रतियोगिता से बाहर रहेगी |  प्रथम, द्वितीय के साथ-साथ तृतीय विजेता का भी चयन किया जायेगा | 


सभी प्रतिभागियों से निवेदन है कि रचना छोटी एवं सारगर्भित हो, यानी घाव करे गंभीर वाली बात हो, रचना पद्य की किसी विधा में प्रस्तुत की जा सकती है | हमेशा की तरह यहाँ भी ओ बी ओ  के आधार नियम लागू रहेंगे तथा केवल अप्रकाशित एवं मौलिक रचना ही स्वीकार की जायेगी  |

 

विशेष :-यदि आप अभी तक  www.openbooksonline.com परिवार से नहीं जुड़ सके है तो यहाँ क्लिक कर प्रथम बार sign up कर लें


अति आवश्यक सूचना :- ओ बी ओ प्रबंधन ने यह निर्णय लिया है कि "चित्र से काव्य तक" प्रतियोगिता  अंक--८, दिनांक  १८ अक्टूबर से २० नवम्बर की मध्य रात्रि १२ बजे तक तीन दिनों तक चलेगी, जिसके अंतर्गत आयोजन की अवधि में प्रति सदस्य   अधिकतम तीन पोस्ट ही दी जा सकेंगी,, साथ ही पूर्व के अनुभवों के आधार पर यह तय किया गया है कि  नियम विरुद्ध व निम्न स्तरीय प्रस्तुति को बिना कोई कारण बताये और बिना कोई पूर्व सूचना दिए प्रबंधन सदस्यों द्वारा अविलम्ब हटा दिया जायेगा, जिसके सम्बन्ध में किसी भी किस्म की सुनवाई नहीं की जायेगी |


मंच संचालक: अम्बरीष श्रीवास्तव


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Replies to This Discussion

मौत और ज़िन्दगी

(प्रतियोगिता से अलग )


मौत है दुर्बल बहुत, बस जीतती है एक बार.

मात देती मौत को नित, ज़िन्दगी कई एक बार.

 

सच कहें तो पेट ही, इंसान का भगवान है.

पेट ही दौलत- ख़ुशी है, पेट ही ईमान है.

 

जिसको भरने के लिए, इंसान सोता-जागता.

कर्म की गठरी लिए, कोई दौड़ता- कोई भागता.

 

मौत के कुँए को इन्सां, लांघता है बार - बार.

मात देती मौत को नित, ज़िन्दगी कई एक बार.

 

हौसला और जोश ही, पूंजी है बस इन्सान की.

हिम्मते और होश ही, कुंजी है हर सोपान की.

 

बाजुओं के जोर से, किस्मत बदल जाती यहाँ.

 डर गया जो खेल में, बाज़ी पलट जाती यहाँ.

 

हिम्मते मरदा हो तो, झुकती ख़ुदाई बार - बार.
मात देती मौत को नित, ज़िन्दगी कई एक बार.

 

 आते हैं सब बाँध मुट्ठी,जाते हैं सब खाली हाथ.

 हाथों से लाखों कमाते, फिर भी खाली रहता हाथ.

 

मौत के कुँए से भी, विकराल है जीवन का कूप.

रात - दिन तन को जलाती, भूख की तीखी ये धूप.

 

मौत भी जाती सहम, जब ज़िन्दगी करती है वार.

मात देती मौत को नित, ज़िन्दगी कई एक बार.

 

गीतकार - सतीश मापतपुरी


सतीश जी, बहुत सुंदर...कितनी गहराई और मार्मिकता है पूरी रचना में. हर शब्द छू जाता है मन को. बधाई ! 

''मौत है दुर्बल बहुत, बस जीतती है एक बार.

मात देती मौत को नित, ज़िन्दगी कई एक बार.

सच कहें तो पेट ही, इंसान का भगवान है.

पेट ही दौलत- ख़ुशी है, पेट ही ईमान है.

अभिन्न शन्नोजी, आपकी टिपण्णी का इंतज़ार हमेशा
ही रहता है ................. सराहना के लिए दिल से आभार

भाई सतीशजी, आपकी रचना के लिये हार्दिक बधाई.

प्रस्तुत दो पंक्तियाँ पूरे चित्र और इसके अंतर्निहित कथ्य को बखूबी परिभाषित कर रही हैं -

//सच कहें तो पेट ही, इंसान का भगवान है.

पेट ही दौलत- ख़ुशी है, पेट ही ईमान है.//

 

मौत के कुँए से भी, विकराल है जीवन का कूप.  अद्भुत परख ... वाह वाह !!! 

पुनश्च बधाइयाँ

वाह! वाह! आदरणीय सतीश सर...

कितना सुन्दर गीत रचा आपने...

 

बाजुओं के जोर से, किस्मत बदल जाती यहाँ.

 डर गया जो खेल में, बाज़ी पलट जाती यहाँ.

हिम्मते मरदा हो तो, झुकती ख़ुदाई बार - बार.

 

बहुत सुन्दर/प्रेरक गीत... सादर बधाई स्वीकारें....

जिसको भरने के लिए, इंसान सोता-जागता.

कर्म की गठरी लिए, कोई दौड़ता- कोई भागता.

बाजुओं के जोर से, किस्मत बदल जाती यहाँ.

 डर गया जो खेल में, बाज़ी पलट जाती यहाँ.

मौत के कुँए से भी, विकराल है जीवन का कूप.

रात - दिन तन को जलाती, भूख की तीखी ये धूप.सतीश मापतपुरी ji housalo se laba-lab aapka ye kavya dhanya hai...badhai.

 

 

//मौत है दुर्बल बहुत, बस जीतती है एक बार.

मात देती मौत को नित, ज़िन्दगी कई एक बार.//

हिम्मत-ए-मर्दे खुदा तो भागता यमदूत है.

मौत को दुर्बल न समझें जिन्दगी मज़बूत है.

 

//सच कहें तो पेट ही, इंसान का भगवान है.

पेट ही दौलत- ख़ुशी है, पेट ही ईमान है.//

पेट पापी है बड़ा यह भूख को ढोता नहीं. 

पेट भूखा गर रहे तो काम तक होता नहीं.

 

//जिसको भरने के लिए, इंसान सोता-जागता.

कर्म की गठरी लिए, कोई दौड़ता- कोई भागता.//

सच यही है मित्रवर जो भूख से अनजान हैं.

पेट भरने के लिए दिन रात वह हैरान हैं.

 

//मौत के कुँए को इन्सां, लांघता है बार - बार.

मात देती मौत को नित, ज़िन्दगी कई एक बार.//

आप को ही साध लें तो जिन्दगी हो हरसिंगार.

मात देती मौत को भी जिन्दगी हर एक बार.

आदरणीय मापतपुरी जी ! इस जिन्दगी को साधते हुए बहुत ही खूबसूरत गीत रचा है आपने ! इस निमित्त कृपया हार्दिक बधाई स्वीकार करें !


बहुत ही मार्मिक गीत कहा आपने आदरणीय मापतपुरी जी... एक एक पंक्ति चित्र के एक एक गहरे भाव को शब्द देती प्रतीत हो रही है...हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिये.

//मौत के कुँए से भी, विकराल है जीवन का कूप.

रात - दिन तन को जलाती, भूख की तीखी ये धूप.//

 

वाह वाह वाह सतीश भाई कमल की रचना कही है, बधाई स्वीकार करें बंधुवर !!

खुबसूरत रचना सतीश भईया, बधाई स्वीकार करें |

सतीश जी, बहुत सुंदर रचना...बस वाह ! वाह ! मुँह से निकल रही है....बहुत-बहुत बधाई !

खासतौर से आपकी रचना की ये पंक्तियाँ कमाल की हैं.....

 

''मौत के कुँए को इन्सां, लांघता है बार - बार.

मात देती मौत को नित, ज़िन्दगी कई एक बार.

 

हौसला और जोश ही, पूंजी है बस इन्सान की.

हिम्मते और होश ही, कुंजी है हर सोपान की.

 

बाजुओं के जोर से, किस्मत बदल जाती यहाँ.

 डर गया जो खेल में, बाज़ी पलट जाती यहाँ.

 

हिम्मते मरदा हो तो, झुकती ख़ुदाई बार - बार.
मात देती मौत को नित, ज़िन्दगी कई एक बार.

 

 आते हैं सब बाँध मुट्ठी,जाते हैं सब खाली हाथ.

 हाथों से लाखों कमाते, फिर भी खाली रहता हाथ.

 

मौत के कुँए से भी, विकराल है जीवन का कूप.

रात - दिन तन को जलाती, भूख की तीखी ये धूप.

 

मौत भी जाती सहम, जब ज़िन्दगी करती है वार.

मात देती मौत को नित, ज़िन्दगी कई एक बार.''

 

हम मौत को धत्ता बताते आये हैं ।

हम जिंदगी के गीत गाते आये हैं ।1।

 

वो हौसलों के सामने टिक पाये ना,

हम पर्वतों को भी झुकाते आये हैं ।2।

 

अपनी कला के मायने क्या होते हैं,

थमते दिलों को यह बताते आये हैं ।3।

 

यह मौत का गड्ढा नहीं है दोस्तों,

हम तो यहाँ जीवन बिताते आये हैं ।4।

 

जो बल दिया है तालियों ने सच हबीब,

हम जिंदगी को आजमाते आये हैं ।5।

____________________________

- संजय मिश्रा 'हबीब'

 

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