For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

मुकरियाँ या कह-मुकरियाँ : इतिहास और विधान

कथ्य व जानकारी  

ओपन बुक्स ऑनलाइन (ओबीओ) पर प्रधान-संपादक आदरणीय योगराज प्रभाकरजी ने लुप्त-प्राय रचना विधा मुकरी या कह-मुकरी में रचनाएँ प्रस्तुत कर आज के सुधी-पाठकों के लिये महती कार्य किया है.  इन अर्थों में आपका यह उत्कृष्ट प्रयास मात्र ओबीओ ही नहीं वर्तमान साहित्यिक परिवेश के लिये भी अभूतपूर्व योगदान है.  मैंने अपने तईं इस संदर्भ में जो कुछ जानकारियाँ प्राप्त की हैं, उन्हें साझा कर रहा हूँ.

 

जैसा कि नाम से प्रतीत होता है, कह-मुकरियाँ या मुकरियाँ  का सीधा सा अर्थ होता है कही हुई बातों से मुकर जाना. और इस बंद में होता भी यही है.  ये चार पंक्तियों का बंद होती हैं, जिसमें पहली तीन पंक्तियाँ किसी संदर्भ या वर्णन को प्रस्तुत करती हैं,  परन्तु स्पष्ट कुछ भी नहीं होता. चौथी पंक्ति दो वाक्य-भागों में विभक्त हुआ करती हैं. पहला वाक्य-भाग उस वर्णन या संदर्भ या इंगित को बूझ जाने के क्रम में अपेक्षित प्रश्न-सा होता है,  जबकि दूसरा वाक्य-भाग वर्णनकर्ता का प्रत्युत्तर होता है जो पहले वाक्य-भाग में बूझ गयी संज्ञा से एकदम से अलग हुआ करता है. यानि किसी और संज्ञा को ही उत्तर के रूप में बतलाता है. इस लिहाज से मुकरियाँ  एक तरह से अन्योक्ति हैं.

 

आदरणीय योगराज प्रभाकर के शब्दों में -

एक बहुत ही पुरातन और लुप्तप्राय: काव्य विधा है "कह-मुकरी" ! हज़रत अमीर खुसरो द्वारा विकसित इस विधा पर भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भी स्तरीय काव्य-सृजन किया है. मगर बरसों से इस विधा पर कोई सार्थक काम नहीं हुआ है. "कह-मुकरी" अर्थात ’कह कर मुकर जाना’ !

वास्तव में इस विधा में दो सखियों के बीच का संवाद निहित होता है, जहाँ एक सखी अपने प्रियतम को याद करते हुए कुछ कहती है, जिसपर दूसरी सखी बूझती हुई पूछती है कि क्या वह अपने साजन की बात कर रही है तो पहली सखी बड़ी चालाकी से इनकार कर (अपने इशारों से मुकर कर) किसी अन्य सामान्य सी चीज़ की तरफ इशारा कर देती है.

 

ध्यातव्य है, कि साजन के वर्णित गुणों का बुझवायी हुई सामान्य या अन्य चीज़ के गुण में लगभग साम्यता होती है. तभी तो काव्य-कौतुक उत्पन्न होता है. और, दूसरी सखी को पहली सखी के उत्तर से संतुष्ट हो जाना पड़ता है यानि पाठक इस काव्य-वार्तालाप का मज़ा लेते हैं.

 
आदरणीय योगराज प्रभाकर की कुछ कह-मुकरियाँ उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत हैं -

इस बिन तो वन उपवन सूना,
सच बोलूँ तो सावन सूना,
सूनी सांझ है सूनी भोर,
ए सखि साजन ? ना सखि मोर !

ऐसा ना हो, वो ना आये,
घड़ी मिलन की बीती जाये,
सोचूँ, देखूँ शून्य की ओर,
ए सखि साजन ? ना सखि मोर !

देख बदरिया कारी कारी,
वा की चाल हुई मतवारी,
हो न जाए ये बरजोर,
ए सखि साजन ? ना सखि मोर !

मादक स्वर में ज्योंहिं पुकारे,
सजनी भूले कारज सारे ,
उठे हिया में अजब हिलोर,
ऐ सखि साजन ? न सखि मोर !

सारा गुलशन खिल जाएगा,
कुछ भी हो पर वो आएगा,
जब आए बादल घनघोर,
ऐ सखि साजन ? न सखि मोर !
 

 

कह-मुकरियों का इतिहास

मुकरियों या कह-मुकरियों का प्रारम्भ, पहेलियों की तरह ही, अमीर खसरो से माना जाता है. उसी परंपरा को आगे बढाते हुए भारतेन्दु हरिश्चन्द्रजी ने अपने समय में इनपर बहुत काम किया.  उन्होंने इनके माध्यम से हास्य, तीखे व्यंग्य, दर्शन आदि के साथ-साथ वर्त्तमान सामाजिक-राजनैतिक घटनाओं पर भी लिख कर बेहतर प्रयोग किये थे. 

भारतेन्दु जी की कुछ मुकरियाँ जो सुलभ हो पायीं हैं उन्हें प्रस्तुत कर रहा हूँ.

 

भीतर भीतर सब रस चूसै ।
हँसि हँसि कै तन मन धन मूसै ।
जाहिर बातन में अति तेज ।
क्यों सखि साजन ? नहिं अँगरेज !

 

सब गुरुजन को बुरो बतावै ।
अपनी खिचड़ी अलग पकावै ।
भीतर तत्व नहिं, झूठी तेजी ।
क्यों सखि साजन ? नहिं अँगरेजी !

 

तीन बुलाए तेरह आवैं ।
निज निज बिपता रोइ सुनावैं ।
आँखौ फूटी भरा न पेट ।
क्यों सखि साजन ? नहिं ग्रैजुएट !

 

मुँह जब लागै तब नहिं छूटै ।
जाति मान धरम धन लूटै ।
पागल करि मोहिं करे खराब ।
क्यों सखि साजन ? नहिं शराब !

 

सीटी देकर पास बुलावै ।
रुपया ले तो निकट बिठावै ।
ले भागै मोहिं खेलहिं खेल ।
क्यों सखि साजन ? नहिं सखि रेल !

 

धन लेकर कछु काम न आवै ।
ऊँची नीची राह दिखावै ।
समय पड़े पर सीधै गुंगी ।
क्यों सखि साजन ? नहिं सखि चुंगी !

 

मतलब ही की बोलै बात ।
राखै सदा काम की घात ।
डोले पहिने सुंदर समला ।
क्यों सखि साजन ? नहिं सखि अमला !

 

सुंदर बानी कहि समुझावैं ।
बिधवागन सों नेह बढ़ावैं ।
दयानिधान परम गुन-आगर ।
क्यों सखि साजन ? नहिं विद्यासागर !  (ईश्वरचंद्र विद्यासागर - बंगाल के उद्भट्ट विद्वान, शिक्षाविद और समाज-सुधारक)

 

रूप दिखावत सरबस लूटै ।
फंदे मैं जो पड़ै न छूटै ।
कपट कटारी जिय मैं हुलिस ।
क्यों सखि साजन ? नहिं सखि पुलिस !

 

एक गरभ मैं सौ सौ पूत ।
जनमावै ऐसा मजबूत ।
करै खटाखट काम सयाना ।
का सखि साजन ? नहिं छापाखाना !

 

सतएँ अठएँ मों घर आवै ।
तरह तरह की बात सुनावै ।
घर बैठे ही जोड़ै तार ।
क्यों सखि सजन ? नहिं अखबार !

 

नई नई नित तान सुनावै ।
अपने जाल मैं जगत फँसावै ।
नित नित हमैं करै बल-सून ।
क्यों सखि साजन ? नहिं कानून !

 

लंगर छोड़ि खड़ा हो झूमै ।
उलटी गति प्रति कूलहि चूमै ।
देस देस डोलै सजि साज ।
क्यों सखि साजन ? नहीं जहाज !

 

 

शिल्प व विधान

यह अवश्य है कि कोई रचना और उसके बंद पहले आते हैं उसके बाद बन गयी परिपाटियों को शिल्पगत अनुशासन मिलता है. अमीर खुसरो या भारतेन्दु आदि ने कथ्य और भाव-संप्रेषण पर अधिक ज़ोर दिया. कारण कि ऐसी प्रस्तुतियों का कोई विधान सम्मत इतिहास था ही नहीं. किन्तु, इस विधा में उपलब्ध प्रस्तुतियों के सजग वाचन से इसके शिल्प का अनुमान तो होता ही है. उस आधार पर कुछ बातें अवश्य साझा करना चाहूँगा.

एक बात और, ऐसे कई रचनाकार हैं जो हिन्दी के अलावे अन्य भाषाओं में भी कह-मुकरियों पर काम कर रहे हैं. यह स्वागतयोग्य है. लेकिन अधिकांश रचनाकारों के साथ दिक्कत यही है कि वे शिल्प के प्रति एकदम से निर्लिप्त हैं. इसकारण उनकी प्रस्तुतियाँ क्षणिक कौतुक का कारण भले बन जायें, विधागत रचना का मान पाने से वंचित रह जाती हैं.  
खैर,  उपरोक्त सभी मुकरियों के बंद को ध्यान से देखा जाय तो दो बातें स्पष्ट होती हैं --

प्रथम तीन पद या वर्णन-पंक्तियों के माध्यम से साजन या प्रियतम या पति के विभिन्न रूप परिलक्षित होते हैं, चौथी  पंक्ति का प्रथम वाक्य-भाग ऐसा ही बूझ लेने को कहता हुआ प्रश्न भी करता है.  परन्तु उसी पंक्ति का दूसरा वाक्य-भाग न सिर्फ़ उस बूझने का खण्डन करता है, अपितु कुछ और ही उत्तर देता है जोकि कवि का वास्तविक इशारा है.

 

दूसरी बात शिल्प के स्तर पर दिखती है.

शब्दों में मात्रिक व्यवस्था के साथ-साथ प्रथम दो पंक्तियाँ सोलह मात्राओं की होती हैं. यानि, प्रथम दो पंक्तियाँ गेयता को निभाती हुई शाब्दिकतः सोलह मात्राओं का निर्वहन करती हैं. तीसरी पंक्ति पन्द्रह या सोलह या सत्तरह मात्राओं की हो सकती है. कारण कि, तीसरी पंक्ति वस्तुतः बुझवायी हुई वस्तु या संज्ञा पर निर्भर करती है. फिर, चौथी पंक्ति दो भागों में विभक्त हो जाती है. तथा चौथी पंक्ति के दूसरे वाक्य-भाग में आये निर्णायक उत्तर से भ्रम या संदेह का निवारण होता है.

कह-मुकरियों की प्रकृति


इस हिसाब से कह-मुकरियाँ या मुकरियाँ पहेलियों के समकक्ष नहीं रखी जा सकतीं. कारण कि, पहेलियों का उत्तर पद्य-बंद का अन्योन्यश्रयाय भाग नहीं होता, बल्कि पुछल्ले की तरह संलग्न हुआ करता है. जबकि यहाँ उत्तर पद्य-बंद का ही हिस्सा है. 

 

इसी तरह कबीर की उलटबासियों को भी कह-मुकरियों के दर्ज़े में नहीं रखा जा सकता जिनकी पूरी प्रकृति ही रहस्यमय है. उलटबासियों को ध्यान से देखा जाय तो ऐसा दीखता भी है.  मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि उलटबासियाँ दर्शन-शास्त्र के मीमांसाओं (विशेष कर पूर्व-मीमांसा) से प्रभावित हैं और उनका इंगित भी कई-कई बार स्पष्ट नहीं होता.

 

विश्वास है, मुकरियों या कह-मुकरियों के रचयिताओं को  वर्णित उपरोक्त विन्दुओं से रचना-कर्म के क्रम में आवश्यक लाभ मिल सकेगा. 

 

***   ***   ***

--सौरभ

 

Views: 21896

Reply to This

Replies to This Discussion

इस उपयोगी (मेरे लिए आवश्यक) जानकारी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद!!

जो कुछ बन पड़ा विक्रमजी, मैंने प्रस्तुत किया है. हमसभी को इस लेख से लाभ हो यही मूल उद्येश्य है.

धन्यवाद.

आदरणीय सौरभ भईया, कह-मुकरिया विधा को आदरणीय योगराज प्रभाकर जी के बाद आपने ओ बी ओ पर बहुत विस्तार दिया है, नव साहित्यकारों के लिए तो मानो बिन मांगे सब कुछ मिल गया है. इस विस्तृत पोस्ट के लिए बहुत-बहुत आभार | उम्मीद है कि सदस्य गण इसका लाभ उठाएंगे और इस विधा पर और बहुत सारी रचनाएँ पढ़ने को मिलेगी |

पुनः धन्यवाद |

हम सभी आदरणीय योगराजभाईजी के शुक्रगुजार हैं कि उन्होंने एक ऐसी विधा को सबके सामने रखा है जो लुप्तप्राय थी.

लेकिन इस विधा की तसीर ही ऐसी है कि आज के कई-कई रचनाकार इस पर हाथ आजमा लेने का लोभ संवरण नहीं कर पायेंगे.आपको मेरा प्रयास रुचा है यह जान कर मैं संतुष्ट हुआ हूँ. धन्यवाद.

सौरभ जी, 

आपकी दी हुई जानकारी सभी के लिये बहुत लाभदायक साबित होगी...जिसके लिये आपको बहुत धन्यबाद.  

आदरणीय सौरभ जी,
आप द्वारा उपलब्ध कराई गयी उपरोक्त जानकारी बहुत ही उपयोगी है, वस्तुतः आपने कह-मुकरी के लगभग सम्पूर्ण विधान को साझा करके हम पर उपकार किया है !
आपका हार्दिक आभार मित्र !
सादर,

आदरणीय अम्बरीषभाईजी, आपको इस लिखे से लाभ हुआ है यह सोच कर ही मैं संतुष्ट हूँ. इस जानकारी को आपसभी के बीच साझा करना मेरे लिये भी आत्म-तुष्टि का कारण हुआ है. 

सादर.

स्वागत है आदरणीय सौरभ जी, आपके द्वारा पोस्ट की गयीं भारतेंदु जी की कह मुकरियों में 'सज्जन' के स्थान पर 'साजन' लिखा है जबकि भारतेंदु जी की उपरोक्त सभी कह मुकरियों में 'सज्जन' शब्द का ही प्रयोग किया गया है ......सन्दर्भ : कविताकोश,( आलेख का नाम : नए ज़माने की मुकरी / भारतेंदु हरिश्चंद्र ) व "Poemhunter", vichar डॉट bhadas4media |

अगाह हेतु सादर धन्यवाद, आदरणीय.  ’कविताकोष’ से इसकी दुरुस्तगी हेतु निवेदन प्रेषित कर दिया जाय.

सादर

यह बन्दा आपके इस आदेश का परिपालन करने में असमर्थ है अतः तीनों जगह यह काम आप ही कीजिए आदरणीय :-)

आज कुछ और व्‍याख्‍या हो गयी, हिन्‍दी छन्‍द पर यह कृपा वर्षा होती रहे, वरना ग़ज़ल और गद्य-कविता के मोहजाल में हमारा साहित्‍य संसार कुछ इस तरह खो रहा था कि ऑंग्‍ल भाषा माध्‍यम से पढ़ने वाली यह पीढ़ी शायद इन स्‍थापित विधाओं को जान ही न पाते। बधाई और धन्‍यवाद सौरभ जी।

हिन्‍दी के छंद संसार में इतने छंद हैं कि मुकरी की विशेष पहचान उसकी संवाद शैली के कारण ही है अन्‍यथा इस छंद को स्‍वतंत्र रूप से भी उपयोग में लाया जाता है। रहस्‍य का ऐसा रूप पैदा करना कि एकाधिक उत्‍तर हों और उनमें से एक उत्‍तर सामान्‍य से हटकर हो, यह स्थिति तो पहेली की ही है। उस पहेली के रहस्‍य खोलने वाले उत्‍तर में सामान्‍य उत्‍तर से मुकरना ही तो इसकी प्रकृति है और उस मुकरने में ही कवि रहस्‍य से पर्दा उठाता है। इसके गठन को देखें तो प्राथमिक पंक्तियों को पढ़कर एक सखी उत्‍तर देती है और प्राथमिक पंक्तियॉं कहने वाली सखी रहस्‍य से पर्दा उठाते हुए अपना मंतव्‍य प्रस्‍तुत करती है। स्‍वाभाविक है कि मुकरी में प्राथमिक पंक्तियों से निर्मित स्थिति पर दो उत्‍तर बनना आवश्‍यक है।

आदरणीय तिलकराज कपूर साहब ! इसे साझा करने के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद !

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Shyam Narain Verma commented on Sushil Sarna's blog post शर्मिन्दगी - लघु कथा
"नमस्ते जी, बहुत ही सुन्दर और ज्ञान वर्धक लघुकथा, हार्दिक बधाई l सादर"
6 hours ago
सुरेश कुमार 'कल्याण' posted blog posts
16 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted blog posts
16 hours ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"हार्दिक धन्यवाद आदरणीय मनन कुमार सिंह जी। बोलचाल में दोनों चलते हैं: खिलवाना, खिलाना/खेलाना।…"
yesterday
Manan Kumar singh replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"आपका आभार उस्मानी जी। तू सब  के बदले  तुम सब  होना चाहिए।शेष ठीक है। पंच की उक्ति…"
yesterday
Manan Kumar singh replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"रचना भावपूर्ण है,पर पात्राधिक्य से कथ्य बोझिल हुआ लगता है।कसावट और बारीक बनावट वांछित है। भाषा…"
yesterday
Sushil Sarna replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"आदरणीय शेख उस्मानी साहिब जी प्रयास पर  आपकी  अमूल्य प्रतिक्रिया ने उसे समृद्ध किया ।…"
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"आदाब। इस बहुत ही दिलचस्प और गंभीर भी रचना पर हार्दिक बधाई आदरणीय मनन कुमार सिंह साहिब।  ऐसे…"
yesterday
Manan Kumar singh replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"जेठांश "क्या?" "नहीं समझा?" "नहीं तो।" "तो सुन।तू छोटा है,मैं…"
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"हार्दिक स्वागत आदरणीय सुशील सरना साहिब। बढ़िया विषय और कथानक बढ़िया कथ्य लिए। हार्दिक बधाई। अंतिम…"
yesterday
Sushil Sarna replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"माँ ...... "पापा"। "हाँ बेटे, राहुल "। "पापा, कोर्ट का टाईम हो रहा है ।…"
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"वादी और वादियॉं (लघुकथा) : आज फ़िर देशवासी अपने बापू जी को भिन्न-भिन्न आयोजनों में याद कर रहे थे।…"
Thursday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service