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दोहा षष्ठक. . . . आतंक

 

नहीं दरिन्दे जानते , क्या होता सिन्दूर ।
जिसे मिटाया था किसी ,  आँखों का वह नूर ।।

 

पहलगाम से आ गई, पुलवामा की याद ।
जख्मों से फिर दर्द का, रिसने लगा मवाद ।।

 

कितना खूनी हो गया, आतंकी उन्माद ।
हर दिल में अब गूँजता,बदले का संवाद ।।

 

जीवन भर का दे गए, आतंकी वो घाव ।
अंतस में प्रतिशोध के, बुझते नहीं अलाव ।।

 

भारत ने सीखी नहीं, डर के आगे हार ।
दे डाली आतंक को ,खुलेआम ललकार ।।

 

कर देंगे आतंक के, मंसूबे सब ढेर ।
गीदड़ बन कर भागते , देखे ऐसे शेर ।।

 

 

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by Sushil Sarna on May 1, 2025 at 8:38am

ओह!  सहमत एवं संशोधित  सर हार्दिक आभार 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 30, 2025 at 11:51pm

आप पहले दोहे के विषम चरण को दुरुस्त कर लें, आदरणीय सुशील सरना जी.

  

Comment by Sushil Sarna on April 30, 2025 at 7:50pm

परम  आदरणीय सौरभ जी सृजन आपकी मनोहारी प्रतिक्रिया से समृद्ध हुआ । हार्दिक आभार आदरणीय जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 30, 2025 at 12:47am

वहशी दरिन्दे क्या जानें, क्या होता सिन्दूर .. प्रस्तुत पद के विषम चरण का आपने क्या कर दिया है, आदरणीय सुशील सरना जी ? 

बाकी दोहे शिल्पगत हैं.  

 

प्रस्तुत दोएह् के लिए विशेष बधाई - 

जीवन भर का दे गए, आतंकी वो घाव 
अंतस में प्रतिशोध के, बुझते नहीं अलाव 

हार्दिक बधाइयाँ .. शुभातिशुभ

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