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हर घर में एक राम है रहता।

हर घर में एक रावण भी॥

जैसी जिसकी सोच है रहती।

उसको दिखता वो वैसा ही॥

 

टूट शिला से छोटा टुकड़ा।

लुढ़क रहा मंदिर की ओर॥

कोई देखता उसको पत्थर।

कोई देखता भगवन को॥

 

आस्था और विश्वास जहां हो।

तर्क नहीं देते कुछ काम॥

मानो या न मानो लेकिन।

बनते सबके बिगड़े काम॥

 

धर्म-अधर्म सब अंदर अपने।

पीर पड़े लगे राम को जपने॥

वर्षो से यही रीत चल रही।

इच्छाओं की गति ढल रही॥

 

लोक दिखावा अब तो छोड़ो।

मोहमाया के बंधन तोड़ो॥

राम नाम ही मीठा है बस।

पहले तोलो फिर कुछ बोलो॥

-प्रदीप भट्ट-

मौलिक एवं अप्रकाशित  

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on October 23, 2018 at 4:04am

बेहतरीन तालीम/सबक़/प्रेरणा युक्त सृजन हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय प्रदीप देवीशरण भट्ट साहिब। कृपया काव्य विधा का नाम व मापनीका विवरण भी देकर हम पाठकों/अभ्यर्थियों का सहयोग कीजिएगा।

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