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हक़ के लिये लड़ते सभी झगड़ा कभी थमता नहीं |

११२१२      ११२१२       ११२१२       ११२१२     कामिल - मुतफ़ाइलुन 
हक़ के लिये लड़ते सभी झगड़ा  कभी थमता नहीं | 
शक है वहीँ डर है कहीं प्रिय   पास है समता  नहीं | 
जब साथ है हर बात है कटु बात भी  मिसरी लगे ,
अँखिया वहीँ दिल है कहीं लगता कहीं  ममता नहीं |
छतरी  वहीँ गुड़िया नहीं कब से   रहीं गुम है कहीं ,
मसला वहीँ तनहा अभी   रहना कहीं  जमता नहीं |
पहिया बिना चलती  नहीं  रुकती कहीं मजधार में , 
पटरी वहीँ गड्डी वहीँ   इक   पाँव से थमता  नहीं |
वन में कहीं  चटकी  कली  महके कहीं बहती हवा ,
पथ में कहीं  मजनू पड़ा उठता कभी   क्षमता नहीं |
जग में सभी मिलते रहें  खुश हों सदा मन से सभी  ,
जब वर्मा  गम हो जिसे दिल तो  कहीं रमता नहीं |
श्याम नारायण वर्मा 
(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Nirmal Nadeem on March 16, 2015 at 4:45pm

Aadarniiy Mithilesh ji, bahut sahi kahaa aapne, kal yahi sochte sochte dimaag garm ho gya k ye sher kiska hai. maafi chahta hu. momin Khan Sahab ka hi. shukriya.

Comment by Shyam Narain Verma on March 16, 2015 at 9:59am

आदरणीय डा. विजय शंकर जी रचना भाव पसंद करने के लिए आपका बहुत बहुत आभार | आदरणीय मिथिलेश जी सुधार करने और कीमती राय देने के लिए बहुत बहुत आभार | आदरणीय गिरिराज जी राय देने के लिए आपका बहुत बहुत आभार |
आदरणीय निर्मल नदीम जी उदाहारण देकर समझाने के लिए आपका बहुत बहुत आभार |
सादर ..


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Comment by मिथिलेश वामनकर on March 16, 2015 at 4:40am
आदरणीय निर्मल नदीम जी बह्र-ए-रजज़ को आपने अच्छा समझाया। हार्दिक धन्यवाद। एक निवेदन करना चाहूँगा
आपने जो शेर मीर साहब का बताया है वो दरअसल मोमिन खाँ मोमिन साहब का है जो ग़ालिब और जौक साहब के समय के है। मीर साहब इनसे 70 साल पहले ही पत्ता पत्ता बूटा बूटा जैसी ग़ज़लें कह गए जिन्हें जफ़र ग़ालिब ज़ौक और मोमिन साहब से पढ़ा और प्रेरित हुए।
Comment by Nirmal Nadeem on March 15, 2015 at 6:34pm
बहुत खूब वाह वाह वाह
बहुत उम्दा ग़ज़ल है भाई क्या कहने।

यह ग़ज़ल आपने बहरे रजज़ में कही है जिसका रुक्न होता है- मुस्तफ़ इलुन: एक मिसरे में चार बार एक शेर में आठ बार।

बहरे कामिल सालिम का अलग रुकन है देखें-
रुक्न: मुतफाइलुन :- एक मिसरे में चार बार एक शेर में आठ बार।

एक उदाहरण देखिए: मेरा मतला और शेर।

न कहा गया न सुना गया
वो ख़याल कोई अजीब था,
जो मेरी ग़ज़ल में था मुब्तिला
वो ख़याल कोई अजीब था।

मैं ये दिल जलाने के बाद भी
उसे कर न पाया हूँ मुतमइन
मैं फ़ना हुआ तो पला बढ़ा,
वो ख़याल कोई अजीब था।

फ़िल्म प्रेम रोग में एक ग़ज़ल इसी बहर पर है-

वो पियार था या कुछ और था न तुझे पता न मुझे पता।
वो निगाह का ही कुसूर था न तुझे पता न मुझे पता।

एक शेर मीर का भी देखिये:

वो जो हममें तुममें करार था तुम्हें याद हो कि न याद हो।
वही फानी वादा निबाह का तुम्हें याद हो कि न याद हो।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 15, 2015 at 9:53am

आदरणीय श्याम भाई , बढिया गज़ल हुई है , आपको हार्दिक बधाइयाँ । आदरणीय मिथिलेश भाई जी की बात से मै भी सहमत हूँ , आपने सभी मिसरों मे साश्वत 2 - हक़ , शक , जब , आदि को 11 ले लिया है , अतः 2212 कर  लेना सरह हो गा ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 15, 2015 at 8:48am

आदरणीय श्याम नरेन वर्मा जी बह्र-ए-रज़ज़ में सुन्दर ग़ज़ल हुई है. वज्न को 2212 x 4 कर लीजिये.

ग़ज़ल के अशआर में बह्र निभाने का दबाव अधिक महसूस हो रहा है इसलिए कई लफ्ज़ भर्ती के लग रहे है जैसे 

जब साथ है हर बात है कटु बात भी  मिसरी लगे ,... जब साथ है अहसास है कटु बात भी मिसरी लगे 

अँखिया वहीँ दिल है कहीं लगता कहीं  ममता नहीं |....अखियाँ वहीँ दिल भी वही लेकिन कहीं ममता नहीं 

जग में सभी मिलते रहें  खुश हों सदा मन से सभी  ,
 वर्मा यहाँ  गम हो इसे दिल तो  कहीं रमता नहीं |
Comment by Dr. Vijai Shanker on March 14, 2015 at 8:08pm
जग में सभी मिलते रहें खुश हों सदा मन से सभी ,
जब वर्मा गम हो जिसे दिल तो कहीं रमता नहीं |
बहुत सुन्दर भाव, आदरणीय श्याम नारायण वर्मा जी , बधाई , सादर।
Comment by Shyam Narain Verma on March 14, 2015 at 1:26pm

सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।

Comment by Shyam Mathpal on March 14, 2015 at 12:30pm

Aadarniya shyam Narain Verma Ji,

Sundar rachna ke liye badhai.

Comment by Shyam Narain Verma on March 14, 2015 at 11:37am

 सराहना हेतु हृदय से आभार.

 सादर 

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