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गुमाँ का बोझ हटा तो संभल गया हूँ मैं
इसी यक़ीन के नीचे कुचल गया हूँ मैं

ये क्या कि मोम कि सूरत पिघल गया हूँ मैं
तेरे क़रीब की हर शय में ढल गया हूँ मैं

इस अंधकार की सीमा तलाशने के लिए
एक आफताब से आगे निकल गया हूँ मैं

अज़ीज़ दोस्त के चेहरे की अजनबी आँखें
बता रहीं हैं कि कितना बदल गया हूँ मैं

मेरा वजूद समंदर की रेत जैसा है
ख़याल छाओं का आते ही जल गया हूँ मैं

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प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on June 7, 2010 at 8:24pm
तारीफ के लिए अलफ़ाज़ ढूँढने मुश्किल हो रहे है, क्या खूब लिखा है
//इस अंधकार की सीमा तलाशने के लिए
एक आफताब से आगे निकल गया हूँ मैं//
में सहमत हूँ फौजान भाई ! सलाम करता हूँ आपके जज्बे को सर !
Comment by Sanjay Kumar Singh on June 5, 2010 at 3:41pm
thanks to open books online, yaha par aek sey aek ghazal mil rahey hai padhney ko , bahut badhiya likhey hai Fauzan jee,
Comment by Babita Gupta on June 5, 2010 at 12:35pm
अज़ीज़ दोस्त के चेहरे की अजनबी आँखें
बता रहीं हैं कि कितना बदल गया हूँ मैं,
Good one, bahut badhiya, aek behtarin gazal likhey hai aap,
Comment by Admin on June 5, 2010 at 10:17am
गुमाँ का बोझ हटा तो संभल गया हूँ मैं
इसी यक़ीन के नीचे कुचल गया हूँ मैं,

पहले की ही तरह एक बार फिर एक बेहतरीन ग़ज़ल पेश किये है फौज़ान साहेब , बहुत ही खुबसूरत ख़यालात के साथ आपने ये ग़ज़ल कही है, बहुत बहुत शुक्रिया,

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on June 4, 2010 at 11:54pm
अज़ीज़ दोस्त के चेहरे की अजनबी आँखें
बता रहीं हैं कि कितना बदल गया हूँ मैं,

waah Fauzan bhai waah bahut hi pyara Ghazal kaha hai aapney, open books online parivar to aapkey hunar ka kayal ho gaya hai, bahut hi jajbaat sey bharey shear hai, bahut khub,

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on June 4, 2010 at 8:12pm
बड़ी उम्दा ग़ज़ल है फौज़ान भाई. आपके ख़यालात के तो क्या कहने. बड़ी दानाई के साथ शब्दों का जाल बुनते है आप. इतना सुन्दर लिखने के लिए मुबारकबाद.....
Comment by PREETAM TIWARY(PREET) on June 4, 2010 at 7:16pm
ये क्या कि मोम कि सूरत पिघल गया हूँ मैं
तेरे क़रीब की हर शय में ढल गया हूँ मैं
bahut hi badhiya fauzan bhai

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