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ग़ज़ल -जब चने की झाड़ पर हम भी चढ़े थे

२१२१       २१२२       २१२२   

हम भी अखबारों में जब इक दिन छपे थे

दोसतों की शक्ल पर बारह बजे थे

 

अब सुनो मंजिल तुम्हें हम क्या बताएं

इक तुम्हारे वास्ते क्या-क्या सहे थे

 

घर भी छूटा द्वार भी औ जाने क्या-क्या

पर उमीदों  के सहारे भी घने थे

 

दिन गुजारे गम को खाकर आंसू पीकर

इस तरह किरदार अपना हम गढ़े थे

 

याद है हमको अभी तक सब खिलाफ़त

किस कदर अपने सभी दुश्मन बने थे

 

और वो इक वाकया था खूब यारो

जब चने के  झाड़ पर हम भी चढ़े थे

 

संजू शब्दिता मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by sanju shabdita on March 27, 2014 at 7:40pm

आदरणीय सौरभ सर आपने सही कहा मैं २१२२  २१२२  २१२२ ही लिखना चाह रही थी पर शायद जल्दी में ग़ज़ल पोस्ट करने से पहले ध्यान नहीं दे सकी .आशा है कि आप मुझे  इस चूक के लिए माफ़ करेंगे .


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 26, 2014 at 8:01pm

और बातें तो हो गयीं. बह्र के रुक्न को सही लिा है क्या आपने ?

संंभवतः २१२२ २१२२ २१२२ लिखना चाहा होगा आपने.

Comment by sanju shabdita on March 24, 2014 at 11:57am

आदरणीय वीनस जी मजाहिया का तो सवाल ही नहीं ,रही बात संजीदा की तो मैं आपके सुझाव पर ध्यान दूंगी ..कोशिस करुँगी कि प्रस्तुत ग़ज़ल को  बेहतर बना सकूँ ..आपके महत्वपूर्ण सुझाव हेतु आपका हार्दिक आभार .

Comment by वीनस केसरी on March 24, 2014 at 1:27am

ग़ज़ल न मजाहिया हो पाई न संजीदा रह सकी ...

फिर से काम करें तो शायद कुछ बेहतर अशआर हो जाएँ

Comment by sanju shabdita on March 14, 2014 at 4:19pm

आ० जीतेन्द्र जी आपका बहुत-बहुत शुक्रिया .

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on March 14, 2014 at 10:48am

बहुत लाजवाब गजल कही आपने आदरणीया संजू जी

घर भी छूटा द्वार भी औ जाने क्या-क्या

पर उमीदों  के सहारे भी घने थे

 

दिन गुजारे गम को खाकर आंसू पीकर

इस तरह किरदार अपना हम गढ़े थे

यह शेर बहुत खास हुए , ढेरों बधाइयाँ आपको

कृपया ध्यान दे...

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