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मै आदमी हूँ / दिलीप कुमार तिवारी

 मै आदमी हूँ
सम्बेदंशील हूँ
मुझे  कई आदमी
कहलाए जाने वालों
ने   छला है I

छाछ फूककर  
पीता हूँ हर-बार
क्यों की मेरा मुह
दिखावे के गर्म दूध से जला है I I

कल्पनाओ का समंदर
मेरे मन में भी है
कुछ पाने की चाह में
जीवन की राह  में  तुमसे मिला है I I I

मुझे रोकना नहीं
टोकना नहीं तुम
बढने दो मेरे पैर
ये हमारी दुश्मनी बदल कर
दोस्ती का सिलशिला है I I I I

मौलिक /अप्रकाशित
दिलीप कुमार तिवारी

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Comment

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Comment by बृजेश नीरज on September 13, 2013 at 1:07pm

बहुत सुन्दर! आपको हार्दिक बधाई!

आदरणीय, इन शब्दों के अर्थ जानना है।

सम्बेदंशील?

सिलशिला?

Comment by विजय मिश्र on September 13, 2013 at 12:15pm
"क्यों की मेरा मुह
दिखावे के गर्म दूध से जला है I"
- सम्वेदना ही तो मनुष्यत्व है अन्यथा पाषाण में भी शिल्पकार स्वरुप डाल देता है .मानवीय गुणों के निरन्तर हो रहे ह्रास को इंगित करती एक सार्थक कविता |सुंदर प्रस्तुति केलिए बधाई दिलीपजी .
Comment by दिलीप कुमार तिवारी on September 12, 2013 at 9:19pm

आदरणीया अन्नपूर्णा जी आप को रचना पसंद आयी इसके लिए ह्रदय से आभार

Comment by दिलीप कुमार तिवारी on September 12, 2013 at 9:16pm

आदरणीय अनंत जी   आपके  स्नेह और आशीष के लिए ह्रदय से आभार

Comment by दिलीप कुमार तिवारी on September 12, 2013 at 9:12pm

सम्माननीया महिमा जी आप को सादर
आभार...रचना को पसंद करने के लिए

Comment by दिलीप कुमार तिवारी on September 12, 2013 at 9:10pm

सम्माननीया मीना जी आप को सादर
आभार....

Comment by दिलीप कुमार तिवारी on September 12, 2013 at 9:07pm

आदरणीय गिरिराज भंडारी जी आपका स्नेह और आशीष के लिए ह्रदय से आभार

Comment by Meena Pathak on September 12, 2013 at 1:56pm

बहुत सुन्दर रचना ....बधाई आप को


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 11, 2013 at 10:19pm

आदरणीय दिलिप भाई , सुन्दर अभिव्यक्ति , सुन्दर रचना के लिये बधाई !!

Comment by MAHIMA SHREE on September 11, 2013 at 9:09pm

सच्ची सुंदर अभिव्यक्ति ...बधाई ..

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