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                               ग़ज़ल

बहुत  विषैला  है  विष  यारो,  दुनिया   की  सच्चाई  का |
आखिर,   कैसे  दर्द  सहें  हम,  दिल  में  फटी बिवाई का ||

बनकर  इन्सां  जीते - जीते  खुद  को  हमने  लुटा  दिया,
फिर  भी  तमगा मिला न हमको एक अदद अच्छाई का ||

वे  रिश्ते  जो  कल तक हमको, अपना सब कुछ कहते थे,
आज  वही  हमको  कहते  हैं -  एक  अपरूप  बुराई   का ||

गैरों  की  नफरत  से  कैसा शिकवा और शिकायत क्या ?
मिल  न  सका  विश्वास  हमें  तो,  हमको अपने भाई का ||

नैतिकता   के   सारे   बंधन   और   कर्त्तव्य   हमारे   थे,
अधिकारों   की   दावेदारी   पर   अधिकार   ढिठाई   का ||

गाली  दें, अपमान  करें  वो , उनको  ये  अधिकार मिला,
और  हमें  कर्त्तव्य -   उन्हें  हम  समझें  रूप मिठाई का ||

कल तक जो भी सीखा हमनें , धर्म - न्याय की भाषा से,
चलन  आज  उल्टा  है  उससे, नवयुग  की  तरुणाई का ||

अपनों  की  ठोकर  से  ही दिल, इतना लहूलुहान आज है,
डर   उसको   सहमा   जाता   है - अपनी भी परछाईं का ||

                                     रचनाकार - अभय दीपराज

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Comment

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Comment by Abhay Kant Jha Deepraaj on December 23, 2010 at 8:12pm
प्रिय मित्र गणेशजी और शेष धर जी बहुत-बहुत धन्यवाद, कि - आप ने मेरी रचना को पढ़ा और मेरे प्रयास को सराहा | आपका अभयदीपराज 

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 18, 2010 at 8:33pm

दीपराज जी, आपको पढ़ना वाकई सुकून दे रहा है........

 

गैरों  की  नफरत  से  कैसा शिकवा और शिकायत क्या ?
मिल  न  सका  विश्वास  हमें  तो हमको अपने भाई का ||

एक बेहतरीन शेर, जरा सा अटकाव लग रहा है "मिल  न  सका  विश्वास  हमें  तो हमको अपने भाई का ||

 

अपनों  की  ठोकर  से  ही दिल, इतना लहूलुहान आज है,
डर   उसको   सहमा   जाता   है - अपनी भी परछाईं का ||

सुंदर ख्यालात |

 

मतले के दुसरे शे'र मे "बिवाई" शब्द कुछ जमा नहीं, बिवाई तो पैर मे होता है दिल मे नहीं |

 




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