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क्या प्रेम मात्र एक भ्रम है,
जिसका न कोई नियम है।
या है प्राणों की विकलता,
जिस पर न सधा संयम है।
जीवन का जो प्रकाश बना,
फिर वही अँधेरा बनता है।
न्यौछावर करके तन-मन सब 
विवशता का छत्र तनता है।
देता है न दिखाई कुछ भी,
जब सम्मुख प्रेम उपस्थित हो।
मन क्यों चंचल हो जाता है,
क्यों आत्मा में न केन्द्रित हो?
जाने कब कौन हृदय को,
कैसे लुभा कर भरमाता है?
क्षण-क्षण उसकी स्मृति को 
फिर हृदय चिंतन में लाता है।
जब मिलते हैं प्रेमी परस्पर,
संयोग बन जाते हैं तब दुर्योग।
आते हैं न जाने कितने संकट,
बन जाता है मिलन तब वियोग।
फिर होता है विखंडित प्रेम,
सब छिन्न-भिन्न हो जाता है।
पाया था जो भी सुख-संसार,
वह नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है।
रह जाती हैं फिर शेष स्मृतियाँ,
जो मन को तड़पाती हैं।
आंसुओं के सागर में डूबकर 
जैसे सांसें ही थमती जाती है।
'सावित्री राठौर'
[मौलिक एवं अप्रकाशित]

 

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Comment by Savitri Rathore on April 7, 2013 at 12:30am

आदरणीय कुंती जी,सादर नमस्कार!
प्रेम तो जीवन का महत्वपूर्ण अंग है।इसके बिना जीवन नीरस है।प्रेम को परिभाषित करना अत्यंत कठिन कार्य है और मैंने तो बहुत छोटा- सा प्रयास किया है।मेरे प्रयास को सराहने हेतु आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।

Comment by Savitri Rathore on April 7, 2013 at 12:24am

आदरणीय सौरभ जी,सादर नमस्कार !
आपके शब्द मेरा मार्गदर्शन करते हैं,आप सबकी अपेक्षाओं पर खरा उतरने का पूरा-पूरा प्रयास करूँगी और आशा है कि आप समय-समय पर ऐसे ही मेरा मार्गदर्शन करते रहेंगे।


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Comment by Saurabh Pandey on April 1, 2013 at 1:25pm

सावित्रीजी, इस भावोद्गार को क्या ही अच्छा होता कविता का सुगढ़ रूप दिया जाता है. यह सही है कि भावनाओं का संप्रेषण ही कविता है किन्तु यह संप्रेषण काव्यगत साधन चाहता है. कविता कैसी भी हो   --अतुकांत या तुकांत--   विधाजन्य कसावट मांगती है. 

बहरहाल इस प्रयास के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ.

Comment by coontee mukerji on April 1, 2013 at 12:34am

सावित्री जी ,प्रेम का ये भी एक रूप है .माना कि वियोग में बहुत कष्ट्दायी होता है मगर

कालांतर में यही प्रेम एक सुखद स्मृति बनकर रह जाती है . सुंदर उदगार के लिये बधाई .

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