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एक ग़ज़ल मनोज अहसास इस्लाह के लिए

2×15

सबका इक दिन आता है दिन मेरा भी आ जायेगा
जीवन पूरा होते-होते जीना भी आ जायेगा

आहें भरना सीख गए तो लिखना भी आ जायेगा
इन शब्दों में इक दिन उसका चेहरा भी आ जायेगा

इसको मन की लाचारी भी कहते हैं दुनिया वाले
खुद से बातें करते करते कहना भी आ जायेगा

आलू पर मिट्टी लिपटी थी ,मिट्टी से जब आया था
दुनिया में कुछ रोज रहेगा छिलका भी आ जायेगा

जिसकी चाहत में इतने दिन आस लगाकर जिंदा थे
मिल न सका तो क्या उसके बिन जीना भी आ जायेगा?

इतना गहरा सन्नाटा है इस छोटे से कमरे में,
खामोशी को पी पी कर चुप रहना भी आ जायेगा

जग के धोखे तेरे सामने रखते लेकिन ये डर है
इन बातों में कोई फसाना तेरा भी आ जायेगा

तू मुझको सौ बातें कह ले फिर भी इतना जान समझ
केवल सुनते सुनते मुझको गुस्सा भी आ जायेगा

दुनिया भर में खोजा तुझको पता नहीं पाया तेरा
उलझन में रहकर हमको शक करना भी आ जायेगा

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by मनोज अहसास on September 9, 2019 at 5:33pm

ग़ज़ल पर बहुमूल्य प्रतिक्रिया ,इस्लाह के लिए हार्दिक आभार आदरणीया समर कबीर साहब

सादर

Comment by Samar kabeer on September 9, 2019 at 3:26pm

जनाब मनोज अहसास जी आदाब,बहुत उम्द: ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

'दुनिया भर में खोजा तुझको पता नहीं पाया तेरा'

इस मिसरे को यूँ कर लें:-

'दुनिया भर में ढूँढा लेकिन फिर भी नज़र न आया तू'

कृपया ध्यान दे...

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