मेरे साहित्यिक आदर्श डा. रामविलास शर्मा
डा॰ महेन्द्रभटनागर
प्रारम्भ से ही, साहित्य-लेखन के क्षेत्र में डा.रामविलास शर्मा जी ने मुझे प्रोत्साहित किया। उनसे मेरा परिचय सन् 1945 से है; जब मैं ‘विक्टोरिया कालेज’, ग्वालियर में बी.ए. के अंतिम वर्ष का छात्र था। तब कालेज में, डाक्टर साहब का भाषाण आयोजित था। वे प्रो. शिवमंगलसिंह ‘सुमन’ जी के निवास पर, गणेश कालोनी, नया बाज़ार, ठहरे थे। ‘सुमन’ जी से उनके बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। उनके नियमित व्यायाम करने की बात; सुगठित स्वस्थ शरीर की बात। जैसा सुन रखा था, वैसा ही उन्हें पाया। ‘सुमन’ जी से उनके संबंध बड़े घनिष्ठ थे। नितान्त अनौपचारिक। लँगोटिया-मित्र जैसे। उस रोज़ भी मेरे सामने दोनों बालकों की तरह परस्पर व्यवहार करने लगे। न जाने क्या हुआ, विनोद-विनोद में दोनों एक दूसरे को पकड़ कर ज़ोर आजमाइश-सी करने लगे। डाक्टर साहब सम्भवतः और सोना चाहते थे। उन्होंने ‘सुमन’ जी को रोका और करवट लेकर फ़र्श पर लेटे रहे ! इतने में, बाहर सड़क पर से एक ताँगा लाउड-स्पीकर पर एलान करता निकला —‘सुमन’ जी के मुहल्ले से। एलान था, डाक्टर साहब के कार्यक्रम का। रामविलास जी उठे और बच्चों की तरह, अपने को महत्त्व देते हुए, सीने पर हाथ थपथपाते हुए बोले —‘देख लो, मेरे बारे में कहा जा रहा है।’ फिर, उसी रोज़, बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि श्री सुमित्रानंदन पंत, आमने-सामने हमेशा उनकी कविताओं की प्रशंसा करते रहे हैं; किन्तु उन्होंने पंत जी के काव्य की उनके समक्ष सदैव जम कर आलोचना ही की।
डा. रामविलास जी को देख कर और उनकी बातें सुन कर, उनके पहलवानी शरीर और बौद्धिक गाभीर्य का सारा भय व आतंक जाता रहा! वे तो बड़े हँसमुख व विनोदप्रिय निकले ! सब सहज-स्वाभाविक। कहीं कोई दिखावा नहीं। वस्त्र तक साधारण धारण करते थे। कोई सजावट नहीं। वे कार्यक्रम के प्रमुख थे; लेकिन कार्यक्रम में जाने के लिए कोई सज-धज नहीं। जाड़ों में कोट-पेण्ट अन्यथा बुशर्ट-पेण्ट पहनते थे। एक बार उनका भाषण अंग्रेज़ी में भी सुनने को मिला; अपने महाविद्यालय ‘कमलाराजा कन्या महाविद्यालय, ग्वालियर’ में।
श्री. पद्मसिंह शर्मा ‘कमलेश’, श्री. रांगेय राघव, डा. रामविलास शर्मा आदि से मिलने, सन् 1946 के आसपास, आगरा कभी-कभी चला जाता था। उन दिनों मेरी बड़ी बहन आगरा में थीं — बहनोई रेलवे में सर्विस करते थे। आगरा सिटी स्टेशन के पास उनका क्वार्टर था। डा. रामविलास जी गोकुलपुरा में रहते थे, श्री. रांगेय राघव बाग़ मुज़फ्फ़र खाँ में। ‘कमलेश’ जी भी कहीं किसी गली में; फिर ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ में। ये अग्रज साहित्यकार ख़ूब प्रेम से दिल खोल कर मिलते थे।
सन् 1948-49 में, मैंने उज्जैन से ‘सन्ध्या’ नामक मासिक साहित्यिक पत्रिका का सम्पादन किया। इसके अंक - 2 में डा. रामविलास शर्मा जी ने भी अपना लेख दिया —‘हिन्दी-साहित्य की प्रगति-विरोधी धाराएँ’। लेख का शेषांश अंक - 3 में छपना था; लेकिन फिर ‘सन्ध्या’ का प्रकाशन ही बंद हो गया — प्रकाशक की इच्छा। यह लेख पर्याप्त हमलावर था; प्रमुख रूप से ‘अज्ञेय’ जी की विचारधारा पर केन्द्रित था। रामविलास जी ने आश्वस्त किया था —‘सन्ध्या’ को मेरा सहयोग बराबर मिलेगा — कैसा भी वह सहयोग हो।’
12 मई 1952 को मेरा विवाह हुआ। अपने अनेक साहित्यिक मित्रों को मैंने आमंत्रण-पत्र भेजे। डा. रामविलास जी को भी। डाक्टर साहब ने जो बधाई-पत्र भेजा; वह अपने में एकदम विशिष्ट था — निराला ! दाम्पत्य जीवन को उन्होंने साहित्य-रचना के लिए प्रेरक बताया। उन्होंने लिखा :
गोकुलपुरा-आगरा / दि. 6-5-52
प्रिय भाई महेन्द्र,
हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करो।
काव्य-प्रतिभा में वृद्धि हो, साहित्य के लिए नयी स्फूर्ति प्राप्त हो।
तुम्हारा,
रामविलास शर्मा
जितना डाक्टर साहब की कृतियों को पढ़ा; उनके लेखन से उतना ही प्रभावित होता गया। सरल भाषा, स्पष्ट दो-टूक अभिव्यक्ति, हमलावर तेवर, बीच-बीच में व्यंग्य का पुट आदि लेखन-संबंधी गुण उनके अपने हैं। उनके जैसा आलोचक हिन्दी में दूसरा नहीं। आलोचना करने में कभी-कभी वे कठोर भी हो जाते हैं। आलोचना विषयक उनके पास सही ऐतिहासिक दृष्टि एवं विचार-सरणि है। वहाँ न कठमुल्लापन है; न अनावश्यक उदारता। जो ग़लत है; उसका वे बेलिहाज़़ विरोध करते हैं।
सन् 1950 का समय रहा होगा। डा. रामविलास शर्मा के आलोचक पर मैंने एक आलोचनात्मक लेख तैयार किया। यह लेख अकोला-विदर्भ से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका ‘प्रवाह’ में छपा। श्री. गजानन माधव मुक्तिबोध जब उज्जैन में एक बार मुझसे मिलने मेरे निवास पर आये, तब उन्होंने इस लेख का भी जि़क्र किया और अपनी निराशा प्रकट की। वे मुझसे तगड़े लेख की अपेक्षा रखते थे। उनकी प्रतिक्रिया मस्तिष्क में आगे बनी रही। फलस्वरूप, आगे सुविधानुसार इस लेख को पुनरीक्षित-परिवर्द्धित किया और श्री. लक्ष्मीनारायण ‘सुधांशु’ जी द्वारा सम्पादित मासिक ‘अवन्तिका’ (पटना) में पुनः प्रकाशित करवाया। डाक्टर साहब ने इसे देखा-पढ़ा। इस संदर्भ में उनका पत्र इस प्रकार है:
गोकुलपुरा, आगरा / दि. 4-1-56
प्रिय भाई,
तुम्हारा 31/12 का कार्ड मिला। ‘अवन्तिका’ मिल गई थी; लेख पढ़ लिया है। इधर मेरे विरुद्ध लिखने में ज़्यादा साहस की आवश्यकता नहीं रही; पक्ष में लिखना बहुतों के लिए दुस्साहस ही रहा। इसलिए बधाई।
मेरी समझ में प्रगतिशील आन्दोलन पर लिखते हुए हिन्दी साहित्य के विभिन्न युगों और साहित्यकारों के मूल्यांकन पर विभिन्न मतों का स्पष्ट उल्लेख करना चाहिए, तभी विचार-धारा के संघर्ष का महत्त्व स्पष्ट होगा।
वैसे मैंदैत्य नहीं हूँ, बौद्धिक भी नहीं। मेरी अनेक आलोचनाओं में Persuasive power की कमी रही है। इसलिए कविता की ओर भी ध्यान दे रहा हूँ।
रघुनाथ विनायक तावसे ने ‘हंस’ में एक बार मेरी कविताओं पर लेख लिखा था। मुझे अच्छा लगा था। क्या उनका पता तुम्हें मालूम है ? और गजानन माधव मुक्तिबोध का ?इधर दिल्ली गया था। नरेन्द्र शर्मा ने कई बहुत अच्छी कविताएँ लिखी हैं।
मेरी कौन-कौन-सी किताबें तुम्हारे पास हैं, लिख भेजो। बाक़ी भिजवा दूंगा।
तुम्हारा,
रामविलास शर्मा
डा. रामविलास शर्मा जी पर लिखा मेरा उपरि-निर्दिष्ट आलोचनात्मक लेख डा. नत्थन सिंह जी-द्वारा सम्पादित ‘आलोचक रामविलास शर्मा’ नामक पुस्तक में भी समाविष्ट है। ‘आलोचना-समग्र’ में तो है ही। लेख में एक स्थल पर मैंने डा. रामविलास शर्मा जी को ‘बौद्धिक दैत्य’ लिखा है! उसी के उत्तर में उन्होंने लिखा - ‘वैसे मैंदैत्य नहीं हूँ; बौद्धिक भी नहीं।’ डा. रामविलास शर्मा जी के कवि-हृदय से सभी परिचित हैं। ‘तार सप्तक’ के वे भी एक कवि हैं। ‘रूप तरंग’ उनका प्रसिद्ध कविता-संग्रह है।
‘नई चेतना’ नामक अपने कविता-संग्रह की पाण्डुलिपि के साथ, एक बार, आगरा गया था (दि. 21-3-53)। डाक्टर साहब से भी मिलना हुआ — उनके निवास पर। रामविलास जी पलंग पर औंधे लेट कर लेखन-कार्य में रत थे। सिरहाने की तरफ़ कागज़ का बंडल था। ‘नई चेतना’ कुछ देर तक उन्होंने देखी; कुछ कविताएँ पढ़ीं और मेरे कहने पर तत्काल अपना अभिमत पृथक से लिख कर दिया:
‘श्री महेन्द्र नई पीढ़ी के प्रभावशाली कवि हैं। उनकी भाषा सरल और भाव मार्मिक होते हैं। उनमें एक तरफ़ जनता के दुख-दर्द से गहरी सहानुभूति है तो दूसरी तरफ़ उसके संघर्ष और विजय में दृढ़ विश्वास भी है। आशा और उत्साह उनकी कविता का मूल स्वर है।’
यह संग्रह सन् 1956 में ‘श्रीअजन्ता प्रकाशन, पटना’ से प्रकाशित हुआ।
मार्च सन् 1954 की बात है। डा. रामविलास जी को, सन् 1953 में प्रकाशित अपना कविता-संग्रह ‘बदलता युग’ भेज रखा था। इसकी भूमिका प्रो. प्रकाशचंद्र गुप्त जी ने लिखी थी। डा. रामविलास शर्मा जी से मैंने इस कृति पर उनकी प्रतिक्रिया जाननी चाही। सोचा न था; इतना उत्साहवर्द्धक अभिमत वे लिख भेजेंगे:
“कवि महेन्द्रभटनागर की सरल, सीधी ईमानदारी और सचाई पाठक को बरबस अपनी तरफ़ खींच लेती है। प्रयोग के लिए प्रयोग न करके, अपने को धोखा न देकर और संसार से उदासीन होकर संसार को ठगने की कोशिश न करके इस तरुण कवि ने अपनी समूची पीढ़ी को ललकारा है कि जनता के साथ खड़े होकर नयी जि़न्दगी के लिए अपनी आवाज़ बुलन्द करे।
महेन्द्रभटनागर की रचनाओं में तरुण और उत्साही युवकों का आशावाद है, उनमें नौजवानों का असमंजस और परिस्थितियों से कुचले हुए हृदय का अवसाद भी है। इसी लिए कविताओं की सचाई इतनी आकर्षक है। यह कवि एक समूची पीढ़ी का प्रतिनिधि है जो बाधाओं और विपत्तियों से लड़कर भविष्य की ओर जाने वाले राजमार्ग का निर्माण कर रहा है।
महेन्द्रभटनागर की कविता सामयिकता में डूबी हुई है। वह एक ऐसी जागरूक सहृदयता का परिचय देते हैंजो अशिव और असुन्दर के दर्शन से सिहर उठती है तो जीवन की नयी कोंपलें फूटते देख कर उल्लसित भी हो उठती है।
कवि के पास अपने भावों के लिये शब्द हैं, छंद हैं, अलंकार हैं। उसके विकास की दिशा यथार्थ जीवन का चितेरा बनने की ओर है। साम्प्रदायिक द्वेष, शासक वर्ग के दमन, जनता के शोक और क्षोभ के बीच सुन पड़ने वाली कवि की इस वाणी का स्वागत ।—
‘जो गिरती दीवारों पर नूतन जग का सृजन करे
वह जनवाणी है !
वह युगवाणी है !”
— रामविलास शर्मा / दि. 26-3-54
सन् 1958 में, मेरा दूसरा स्केच-संग्रह / लघुकथा-संग्रह ‘विकृतियाँ’ प्रकाशित हुआ और सन् 1962 में नवाँ कविता-संग्रह ‘जिजीविषा’। इन पर भी उनकी प्रतिक्रियाएँ प्राप्त हुईं:
30 नयी राजामंडी, आगरा / दि.27-12-62
प्रिय भाई,
तुम्हारी प्रकृति-संबंधी कविताएँ मुझे बहुत अच्छी लगीं।
स्केच बहुत सुन्दर हैं। ख़ूब गद्य लिखो। अच्छे यथार्थवादी गद्य की बड़ी कमी है।
इधर समय न मिल पाने से आलोचना नहीं लिख पाता।
आशा है, प्रसन्न हो।
तु.
रामविलास शर्मा
फिर, सन् 1968 में मेरी कविताओं के अंग्रेज़ी-अनुवादों का एक विशिष्ट संकलन ‘Forty Poems Of MahendraBhatnagar’प्रकाश में आया। डा. रामविलास शर्मा जी तो अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर रहे। उन्हें यह संकलन भी प्रेषित किया। इस पर उनके विचार प्राप्त हुए:
30 नयी राजामंडी, आगरा / दि.13-3-68
प्रिय भाई,
‘Forty Poems’ की प्रति मिली। आपका 8/3 का कार्ड भी। पुस्तक का मुद्रण नयनाभिराम, कविताएँ युग चेतना और कवि-व्यक्तित्व का प्रतिबिम्ब, अनुवाद सरल और सुबोध हैं।
आशा है, प्रसन्न हैं।
आपका,
रामविलास शर्मा
सन् 1977 में बारहवाँ कविता-संग्रह ‘संकल्प’ निकला। इसे देख कर भी उन्होंने अपनी प्रसन्नता व्यक्त की दि. 5-4-77
प्रिय डा. महेन्द्रभटनागर,
आपका कार्ड मिला, कविता-पुस्तिका भी।
आप निरन्तर कविता लिखते जा रहे हैं, यह प्रसन्नता की बात है। पुस्तिका प्रकाशन पर बधाई। उसे भेजने के लिए धन्यवाद।
आशा है, आप सदा की भाँति स्वस्थ और प्रसन्न होंगे।
आपका,
रामविलास शर्मा
सन् 1980 में रामविलास जी को अपने महाविद्यालय ‘कमलाराजा कन्या महाविद्यालय’, ग्वालियर में आमंत्रित किया। अपने पत्र के साथ प्राचार्य श्रीमती रमोला चैधरी का पत्र भी भेजा। पर, रामविलास शर्मा जी पारिवारिक कारणों से न आ सके:
दि. 5-12-80
प्रिय भाई,
बहुत दिनों बाद आपका पत्र पाकर मन प्रसन्न हुआ।
मेरी पत्नी अस्वस्थ रहती हैं। इस कारण कई वर्ष से यात्रा कार्य बंद है। आपसे मिल कर सुख पाता, पर यह सम्भव नहीं है।
आप प्राचार्य जी को मेरी विवशता बता दें।
सस्नेह,
रामविलास शर्मा
फिर, डा. रामविलास शर्मा जी नई दिल्ली रहने लगे। सन् 1986 में अपनी प्रतिनिधि कविताओं के संकलन के संदर्भ में रामविलास जी को लिखा; इस उम्मीद से कि उनके माध्यम से कोई प्रकाशक मिल जाए; ‘राजकमल’ या कोई और। ‘ताशकंद विश्वविद्यालय’ संबंधी सूचना भी उन्हें दी। उत्तर में डा. रामविलास जी ने लिखा:
नई दिल्ली / दि. 22-12-86
प्रिय डा. महेन्द्र,
आपने ठीक लिखा है, कविता-संग्रहों के नये संस्करण छापने को प्रकाशक तैयार नहीं होते। कविता-संग्रह ही नहीं, गद्य पुस्तकों के नये संस्करणों के प्रति भी वे उदासीन रहते हैं। ‘निराला की साहित्य साधना’ (3) का पहला संस्करण तीन साल पहले समाप्त हो गया था। नया संस्करण अभी तक नहीं निकला। इससे आप कल्पना करलें, ‘राजकमल’ पर मेरा प्रभाव कितना होगा। आप अपनी प्रतिनिधि कविताओं के संकलन के बारे में सीधे उनसे बातें करें।
ताशकंद में आप कार्य करने नहीं जा सके, खेद की बात है। सोवियत संघ के लोगों से मेरा कोई सम्पर्क नहीं है। इस दिशा में शायद डा. नामवर सिंह कुछ कर सकें।
शेष कुशल।
सप्रेम,
रामविलास शर्मा
समय तेज़ी से गुज़रता गया। रामविलास जी 86 वर्ष के हुए; मैंने 73 वें में प्रवेश किया।
सन् 1997 में, पंद्रहवाँ कविता-संग्रह ‘आहत युग’ निकला। रामविलास जी को देर - सवेर से प्रेषित किया। काँपते हाथों से लिखा उनका पत्र मिला:
दि. 3-12-96
प्रिय महेन्द्र जी,
आपने ‘आहत युग’ छापी है, जान कर प्रसन्नता हुई।
आपने 72 पार किये; मैंने 86 पार किये।
शुभकामना सहित,
रा.वि. शर्मा
किसी-न-किसी बहाने डा. रामविलास जी से जुड़ा रहा। उन्होंने भी बराबर मेरा ध्यान रखा। उनका प्रेम मेरे साहित्यिक जीवन का सम्बल है। वे शुरू से ही मुझे ‘महेन्द्र’ कहते रहे। इस पीढ़ी के अन्य घनिष्ठ अग्रज साहित्यकारों ने भी; यथा श्री जगननाथ प्रसाद मिलिन्द, डा. हरिहरनिवास द्विवेदी, डा. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, डा. नगेन्द्र,डा. प्रभाकर माचवे आदि ने सदैव ‘महेन्द्र’ ही कह कर पुकारा। ‘महेन्द्र’ अधिक आत्मीयता बोधक है। ऐसी आत्मीयता अब तो विरल है। ‘महेन्द्र’ कह कर पुकारने वाले मेरे जीते-जी अधिक-से अधिक बने रहें; ऐसी अभिलाषा, जब-तब जाग उठती है !
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डॉ. महेन्द्रभटनागर,
110 बलवन्तनगर, गांधी रोड, ग्वालियर — 474 002 [म॰ प्र॰]
फ़ोन : 0751-4092908
ई-मेल : drmahendra02@gmail.com
Comment
श्रद्धेय महेन्द्रजी,
इस संस्मरणात्मक आलेख पर मेरा सादर नमन स्वीकार करें.
पढ़ने के उपरन्त ऐसा प्रतीत हो रह है गोया एक आत्मीय अतीत को रस-रस जी कर पुनः नया हुआ हूँ.
हमारे लिये जो नाम इतिहासजयी हैं उन्हें इस आत्मीयता से उद्धृत देख कर रोमांचित हो जाना लाजिमी है. कई नाम मेरे लिये निजी हैं, क्योंकि बचपन उन नामों को अपने माहौल में बेतकल्लुफ़ी के माहौल में सुना करता था. आपकी उपस्थिति आशीष प्रदाता है, मार्ग और दिशा सूचक भी हो इस बाल-सुलभ प्रत्याशा के साथ आपके चरणों पर मेरा पुनः नमन.
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