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क्यूँ जाने लोग कुछ अपने ही जल गए---ग़ज़ल

1212 1222 1212

हमारे वार से जब अरि दहल गए
क्यूँ जाने लोग कुछ अपने ही जल गए

ख़बर ख़बीस के मरने की क्या मिली
वतन में कईयों के आँसू निकल गए

वो बिलबिला उठे हैं जाने क्यूँ भला
जो लोग देश को वर्षों हैं छल गए

नसीब-ए-मुल्क़ पे उँगली उठाए हैं
सुकून देश का जो खुद निगल गए

मिलेगा दण्ड ए दुश्मन ज़रु'र
वो और ही थे, जो तुझ पर पिघल गए

मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on March 7, 2019 at 9:15pm

आदरणीय बाऊजी सादर प्रणाम

सुझाव पर काम होगा

Comment by Samar kabeer on March 7, 2019 at 2:38pm

अज़ीज़म पंकज कुमार मिश्रा आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

ऐसी बह्र पर प्रयास करने से,बह्र निभाने के चक्कर में गेयता से हाथ धोना पड़ता है,इसलिए बहतर होगा कि मारूफ़ बहूर पर अभ्यास किया जाए ।

'सुकून मुल्क़ का जो खुद निगल गए'

इस मिसरे में ऐब-ए-तनाफ़ुर है,'मुल्क' की जगह "देश" कर लें ।

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