अनूठा इजहार
नितिशा के बाबूजी के अंतिम श्रद्धांजलि दे रहे थे,तभी अंदर से शांत मुद्रा में नितिशा की दादी,सरल चिरनिद्रा में लीन बाबूजी के पार्थवशरीर के समक्ष बैठी,हाथ मे पकड़े नए सफेद रूमाल से मुंह पौछा,फिर कान के पास जाकर जो कहा,सभी उन्हें विस्मयद्रष्टि से देखने लगे,वो सिर पर हाथ फेरते हुये कह रही थी- ‘तुम आराम से रहना,मेरी चिंता मत करना. रामायण की चौपाई सुनाई,फिर बाबूजी का मनपसंद गीत गया,और सूखीआँखें चली गई.पूरे तेरह दिन सरला अपने ही कमरे मे ही रही. गरूढ़पुराण में शामिल होने को कहते तो नकारती- ‘अब किसके लिए?’
घर के लोग ,रिश्तेदार सरला का यह अनौखा रूप देख आश्चर्यचकित तो हुये लेकिन भावविहल हुये बिना नही रहे. नितिशा के अन्तर्मन मे यही सब कौंध रहा था,सोच-सोच के परेशान थी,उसने कभी भी दादी–बाबू को कभी हँसते हुये बातें करते नहीं देखा,जब देखा,तो दोनों को लड़ते-झगड़ते.यहाँ तक की बाबूजी अपने पोते-पोती के कमरे में उठते-बैठते-सोते ,और दादी अपने पूजाघर में ही उनकी दिन-रात होती.बस,नियमित शाम को मंदिर के लिए कमरे से बाहर निकलती या फिर थोड़ा बहुत शाम की हवा खाने छत्त पर.बाबूजी से उनका अलग ही तरह का रिश्ता था.बाबूजी जब कभी थोड़ा-बहुत बीमार पड़ते तो कभी उनकी ना तो देख-रेख करती,और ना ही हाल-चाल पुछती.बाबूजी उनके कमरे आकर बैठ भी जाते या कभी कोई अपनी परेशानी सांझा करना चाहते,तो दोनों के बीच मे इतनी गहमा-गहमी शुरू हो जाती कि बेटे-बहु-बच्चे दोनों को अलग-अलग करते.एकाधबार दोनों को छोडकर शादी मे या घूमने गए,आने पर पड़ौसियों से पता चलता कि एक दिन दोनों गार्डन में बैठे चाय पी रहें थे,अचानक से चीखने की आवाजें सुन बाहर देखा तो दोनों लाल-पीले होकर एक दूसरेन की कमियों को उजागर कर अजीबो-गरीब उपाधियों से नबाज़ रहे थे.पूरी कालौनी एकत्र हो गई,काफी देर बाद मामला सुलझा.सुनकर गुस्सा भी आया,हंसी भी आई.दादी–बाबूजी के इस तरह की नौक-झौक भरे बेरूखी जीवन के बारे मे चर्चा होती तो बस बुआ दादी इतना ही कहती- ‘तेरी दादी ने बाबूजी को बहुत सहा,सरला जैसी सुलक्षणी पत्नी के तो इसे चरण धोकर पीना चाहिए,जो उसने नरक जैसे घर को स्वर्ग बना दिया,बच्चों को इज्जतदार जीवन जीने लायक बनाया.पर भाई को इसके त्याग की कद्र ना थी.वक्त रहते ना की,क्या मतलब की.खैर.......’ हम सब शांत रह जाते.
पर आज बड़ी ताई के ज़ोर देने पर जो बताया ,जानकर एहसास हुआ,ऊपर के घाव वक्त रहते भर जाते हैं,पर मन के घाव नासूर बन रिसते रहते हैं,चाहकर भी सहानुभूति का मरहम जलन करता हैं.बात कुछ यूं हुई,लड़ाई-झगड़ा में कही बातों को सरला दादी चिकने घड़े की तरह पी जाती थी ,पर उस दिन जब बाबूजी ने उनके चरित्र पर उंगली उठाई,तो पानी सिर से ऊपर गुजर गया,स्वाभिमान पर हथौड़ा सा पड़ा,उसकी मार से तिलमिला गई,बजूद खत्म करना चाहती थी,पर बच्चों की खातिर अपमान-सा घूंट पीकर रह गई,पर उस दिन पश्चात दोनों का दांपत्यजीवन अंजाना-सा हो गया.रस्मों के बंधन सिर्फ चूड़ी-बिछियों तक रह गए.’
दादी के शांतचेहरे के पीछे की पीड़ा सुन नितिशा तड़प उठी.बाबूजी के जीवित रहते दादी ने प्यार के लावे को पाषाणह्रदय में दफन कर दिया था,पर आज वो उबल के बाहर आ ही गया.
बबिता गुप्ता
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आभार, आदरणीय समर कबीर सरजी।
मुहतरमा बबीता गुप्ता जी आदाब,अच्छी लघुकथा लिखी आपने,बधाई स्वीकार करें ।
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