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गज़ल - दिगंबर नासवा

मखमली से फूल नाज़ुक पत्तियों को रख दिया

शाम होते ही दरीचे पर दियों को रख दिया

 

लौट के आया तो टूटी चूड़ियों को रख दिया

वक़्त ने कुछ अनकही मजबूरियों को रख दिया

 

आंसुओं से तर-बतर तकिये रहे चुप देर तक  

सलवटों ने चीखती खामोशियों को रख दिया

 

छोड़ना था गाँव जब रोज़ी कमाने के लिए

माँ ने बचपन में सुनाई लोरियों को रख दिया 

 

भीड़ में लोगों की दिन भर हँस के बतियाती रही 

रास्ते पर कब न जाने सिसकियों को रख दिया

 

इश्क के पैगाम के बदले तो कुछ भेजा नहीं

पर मेरी खिड़की पे उसने तितलियों को रख दिया

 

नाम जब आया मेरा तो फेर लीं नज़रें मगर

भीगती गजलों में मेरी शोखियों को रख दिया

 

चिलचिलाती धूप में तपने लगी जब छत मेरी

उनके हाथों की लिखी कुछ चिट्ठियों को रख दिया 

 

कुछ दिनों को काम से बाहर गया था शह्र के

पूड़ियों के साथ उसने हिचकियों को रख दिया

 

कुछ ज़ियादा कह दिया, वो चुप रही पर लंच में

साथ में सौरी के मेरी गलतियों को रख दिया

 

बीच ही दंगों के लौटी ज़िन्दगी ढर्रे पे फिर

शह्र में जो फौज की कुछ टुकड़ियों को रख दिया

 

कुछ दलों ने राजनीती की दुकानों के लिए

वोट की शतरंज पे फिर फौजियों को रख दिया

 

मौलिक व् अप्रकाशित 

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Comment by Samar kabeer on January 24, 2019 at 11:11pm

जनाब दिगंबर नासवा जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा हुआ है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

'भीड़ में लोगों की दिन भर हंस के बतियाती रही '

इस मिसरे में 'हंस' को "हँस" कर लें ।

Comment by दिगंबर नासवा on January 24, 2019 at 8:56am

बहुत आभार आपका लक्ष्मण जी ... मेरा प्रयास आपको अच्छा लगा ...

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 24, 2019 at 6:12am

आ. भाई दिगम्बर जी, खूबसूरत गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।

कृपया ध्यान दे...

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