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नींद जो कहलाती हूँ

श्रांत स्लॉथ हो, जब
घर, लौट के आता
तुझे विश्राम कराती हूँ,
हर थकान को मैं, मिटाकर
आराम तुझे दिलाती हूँ,
नींद जो कहलाती हूँ||
.
हर व्यथा और तिरस्कार को,
मैं भुलाकर
सपनों की सैर कराती हूँ
विचित्र दुनियाँ में
तुझे घुमाकर,
ख़ुशी तुझे दिलाती हूँ,
नींद जो कहलाती हूँ||
.
कभी नृप कभी रंक बनाकर
ब्रह्मांड का खेल दिखाती हूँ
हर ख्वाहिश को पूरी कर तेरी
नींद की गोद सुलाती हूँ
विषाद से मुक्त कराती हूँ
नींद जो कहलाती हूँ||
.
सोच ना पाएं जहाँ तक की
वहां तुझे ले जाती हूँ
ऐसे सपनें मैं दिखाती
कायर को, वीर बनाती हूँ
शान से जब मैं जब आती हूँ
नींद जो कहलाती हूँ||
.
उद्विग्न होते मन को तेरे
शांति, मैं दिलाती हूँ
सपनों के मैं पंख लगाकर
कभी नभ तो कभी धरा पर
खूब तुझे घुमाती हूँ
नींद में मौज कराती हूँ
नींद जो कहलाती हूँ||
.
“मौलिक और अप्रकाशित”

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Comment by Mahendra Kumar on January 16, 2019 at 11:33am

नींद पर बढ़िया रचना प्रस्तुत की है आपने आदरणीय फूल सिंह जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.

Comment by PHOOL SINGH on January 10, 2019 at 12:06pm

"कबीर साहब" हौसलाफजाई के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद, आशीर्वाद बनाये रखे |

Comment by Samar kabeer on January 10, 2019 at 11:53am

जनाब फूल सिंह जी आदाब,अच्छी रचना हुई है,बधाई स्वीकार करें ।

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