मंदिर के भीतर भीड़ उमड़ रही थी। तिल धरने की जगह नहीं बची थी। सभी को अपनी धुन लगी थी। सभी अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे और चाहते थे कि उनका जल मूर्ति पर चढ़ जाय जिससे उन्हें बाहर निकलने का मौका मिले। औरतों का रास्ता दूसरी तरफ से था। औरते उसी तरफ से आ कर मूर्ति का दर्शन पूजन कर रही थीं। मरछही भी उन्हीं महिलाओं में शामिल थी। आगे बढ़ रही थी पीछे से धक्का लग रहा था। वह जब मूर्ति के सामने आई और उसने अपना जल गिराया। उसके बाद सिर नवाकर आशीष मांगा। मरछही ने जब सिर उठाकर मूर्ति के अलावा पहली बार देखा तो उसकी निगाह पुरूषों की कतार पर पड़ी। उसने देखा कि उसमें संदीप भी खड़ा था। उसके पहले एक आदमी था जिसके बाद उसका नंबर आने वाला था। मरछही वहां से हटती तब तक संदीप मूर्ति के करीब आ गया था। उसकी भी निगाह मरछही पर पड़ी जो उसकी पत्नी थी। वह एक दम से हड़बड़ा गया । उसे इसकी कल्पना नहीं थी कि मरछही से उसकी भेंट इस प्रकार हो सकेगी। उसने मरछही से बाहर मिलने का इशारा किया। मरछही ने भी हामी भरी। उसके बाद वह बाहर निकल आई। दरवाजे से थोड़ा हटकर उसका इंतजार करने लगी। थोड़ी देर बाद संदीप मंदिर से बाहर निकलता दिखाई पड़ा। नजदीक आकर उसने उससे पास के खाली जगह पर चलने को कहा। वह धीमी गति से उसके साथ चलने लगी।
मरछही सोच रही थी कि यही संदीप था जिससे शादी के बाद उसक दिन कैसे अच्छी तरह गुजर रहे थे लेकिन कुछ समय से ऐसा हुआ कि इसकी मां ने मरछही को तरह - तरह से लांछित करना शुरू कर दिया था। जिससे घर में आये दिन कलह का माहौल बन गया था। बाद में तो उसको वहां से निष्कासित ही कर दिया गया था। वह अपने मां-बाप के यहां रहने को बाध्य हो गयी थी। यह तो उसका मैका अच्छा था कि भाई व भऊजाइयों ने उसे अपनी बहन व ननद के समान आदर दिया उसे यह महसूस ही नहीं होने दिया कि वह मैके में है। लेकिन अपना घर तो अपना ही होता है। रात में कभी-कभी वह अपने भाग्य पर रोती थी। वह अपने को गलत राह पर न पाते हुए भी दोषी बनाये जाने से दुखी थी। यह दुख उसके हृदय से निकल नहीं पा रहा था। यहां तक कि उसका मर्द भी उससे दूर चला गया था। उसने भी एक बार उसकी पूछ नहीं की और सच्चाई से वाकिफ होने की कोशिश नहीं की । मरछही को अकस्मात रूकना पड़ा । उसने देखा कि उसकी बाह पकड़ कर संदीप उसे रूकने को कह रहा है। वह रूक गयी।
संदीप ने उसे वही ठहरने को कह कर पास की मिठाई की दुकान पर चला गया। वहां से उसने दो दोनों में मिठाई खरीदी और वापस आया। एक मरछही को दिया और दूसरी से निकाल कर मिठाई खाने लगा। मरछही ने उसे भर निगाह देखा। संदीप ने उससे कहा कि मरछही कैसी हो। आज बहुत दिन के बाद देखा तो सोचा कुछ बात ही कर ले। मरछही ने उत्तर दिया -मैं ठीक हूं।
इसके बाद इधर उधर की बात के बाद संदीप ने घर की बात उठायी तो मरछही से रहा नहीं गया उसकी आंख से आंसुओं की धार निकलने लगी और हिचकी पर हिचकी आने लगी। सार्वजनिक जगह पर उसे रोते देखकर संदीप डर गया । उसने उसे मनाने की कोशिश की। मरछही कुछ देर बाद रूक गयी।
उसने कहा कि आप तो मुझे ही दोषी समझते हैं। सारा दोष मेरा ही है। जबकि मुझसे जलन के कारण आपकी मां मुझ पर वे आरोप लगा रही थीं। जो एक दम निराधार थे। आप नहीं मानते हैं तो स्वयं अब पता लगा सकते हैं कि उनमें से कौन सा कार्य मेरे द्वारा हुआ था। मैंने ऐसा कोई कार्य नहीं किया था। उन दिनों को याद करके वह पुनः सिसकने लगी।
संदीप ठगा सा रह गया। वह सोच रहा था कि कैसे बात को आगे बढाएं।
उसने कहा कि अब बात मेरे समझ में आ गई है। तुम ऐसा करो कि मैं जब तुम्हे बुलाने आऊँ तो तुम चली आना। मरछही ने कहा कि आप आने से पहले मेरे मां-बाप व भाई से बात करलें क्योंकि उन्हें ऐतराज होने पर वहां आना मुश्किल होगा। संदीप ने कहा कि ठीक है । मैं उन से बात करके ही आऊँगा।
इसके बाद दोनों वहां से अपने -अपने राह चले गये।
कुछ दिनों के बाद संदीप मरछही के गांव गया। उसके पिता व भाई से अपनी गलती की माफी मांगी। उनसे यह वादा किया कि मरछही को अच्छी तरह रखेगा। वह जब तक गलती नहीं करेगी तब तक उससे कुछ भी नहीं कहेगा।
मरछही अपने गांव आ गई। यह सब कुछ हो गया। लेकिन उसकी सास का स्वभाव नहीं बदला। वह हर समय उससे उल्टा सीधा बोलती रहती थी। मरछही ने एक दिन संदीप को छिपा कर उनकी सारी गतिविधि को दिखा दिया। संदीप ने दूसरे दिन अपनी मां को बुरी तरह फटकारा व कहा कि यदि वह अपनी आदत नहीं सुधारती है तो उसका नुकसान हो जायेगा। यदि वह अपमानित होना नहीं चाहती तो अपने में सुधार लाये।
मां जो अपने को तीस मार खां समझ रही थी। इस डपट के बाद डर गयी । वह मरछही से मिल कर रहने लगी।
मौलिक व अप्रकाशित
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