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गीत: आँख का पानी -संजीव 'सलिल'

गीत

संजीव 'सलिल'
*
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*
बेचते हो क्यों
कहो निज आँख का पानी?
मोल समझो
बात का यह है न बेमानी....

जानती जनता
सियासत कर रहे हो तुम.
मानती-पहचानती
छल कर रहे हो तुम.
हो तुम्हीं शासक-
प्रशासक न्याय के दाता.
आह पीड़ा दाह
बनकर पल रहे हो तुम.
खेलते हो क्यों
गँवाकर आँख का पानी?
मोल समझो
बात का यह है न बेमानी....

लाश का
व्यापार करते शर्म ना आई.
बेहतर तुमसे
दशानन ही रहा भाई.
लोभ ईर्ष्या मौत के
सौदागरों सोचो-
साथ किसके गयी
कुर्सी साथ कब आई?
फेंकते हो क्यों
मलिनकर आँख का पानी?
मोल समझो
बात का यह है न बेमानी....

गिरि सरोवर
नदी जंगल निगल डाले हैं.
वसन उज्जवल
पर तुम्हारे हृदय काले हैं.
जाग जनगण
फूँक देगा तुम्हारी लंका-
डरो, सम्हलो
फिर न कहना- 'पड़े लाले हैं.'
बचा लो कुछ तो
जतन कर आँख का पानी
मोल समझो
बात का यह है न बेमानी....
*

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Comment

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on July 5, 2010 at 5:51pm
वसन उज्जवल
पर तुम्हारे हृदय काले हैं.
जाग जनगण
फूँक देगा तुम्हारी लंका-
डरो, सम्हलो
फिर न कहना- 'पड़े लाले हैं.'
बचा लो कुछ तो
जतन कर आँख का पानी,

Bahut khub acharya jee, ees bhag daud bhari jindgi mey to lag raha hai jaisey logo key aankh ka paani jatey raha hai, bahut sunder abhivyakti aur umdda Vichar, Dhanyavad Acharya jee,
Comment by sanjiv verma 'salil' on July 2, 2010 at 10:45pm
aatmeey!
vande mataram.
andekhee truti kee or dhyan akarshit karne hetu aabhar. truti sudhar dee hai.

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on July 2, 2010 at 12:39pm
आचार्य जी इस बहुत अर्थपूर्ण गीत के लिए मेरा साधुवाद स्वीकार कीजिये ! लेकिन इस गीत को आपने "हाइकु गीत" कहा है - यह बात समझ में नहीं आयी !

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