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कहो तो घोल दें मिसरी ये हम अधिकार रखते हैं  

सिराओं में जहर भर दे वो हम फुफकार रखते हैं

 

बहुत से बेशरम आते हैं छुप –छुप कर हमारे घर  

उन्ही के दम से हम भी हैसियत सरकार रखते हैं

 

दिखाते है हमें वे शान-शौकत से झनक अपनी

तो उनसे कम नहीं घुँघरू की हम झनकार रखते हैं  

 

छिपे होते है आस्तीनों में अक्सर सांप जहरीले

इधर हम बज्म में उनसे बड़े फनकार रखते हैं  

 

गुमां गर है कि हम बिछते हैं चांदी और सोने पर

तो मत रखिये गलत फहमी कड़ी फटकार रखते हैं

 

हमें बदकार कहते हो तो मत करना भरोसा तुम

यकीनन हम हर इक धडकन में दिल बदकार रखते है

 

जिसे स्वीकार कहते हो, समर्पण है नियति का वह

वगरना हम भी दिल में हौसला इनकार रखते हैं   

(मौलिक /अप्रकाशित)

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Comment by मिथिलेश वामनकर on February 8, 2017 at 4:07pm

आदरणीय गोपाल सर, बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने. बह्र को भी खूब साधा है. इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई. सादर 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on February 8, 2017 at 2:11pm

आदरणीय गोपाल सर  इस शानदार ग़ज़ल के लिए ढेर सारी बधाई के साथ 

छिपे होते है आस्तीनों में अक्सर सांप जहरीले......आस्तीनों में थोडा रुकावट महसूस हो रही है सादर प्रणाम के साथ 

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