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ग़ज़ल क्या गिला है रुक्मिणी से

2122 2122
तुम मिली थी सादगी से ।
याद है चेहरा तभी से ।।

जिक्र आया फिर उसी का ।
जब गया उसकी गली से ।।

बादलों का यूं घुमड़ना ।
है जमीं की तिश्नगी से ।।

यूं मुकद्दर आजमाइश ।
कर गई फ़ितरत ख़ुशी से ।।

गीत भंवरा गुनगुनाया ।
आ गई खुशबू कली से ।।

मैकशों का क्या भरोसा ।
वास्ता बस मैकशी से ।।

सिर्फ राधा ढ़ूढ़ते हो ।
क्या गिला है रुक्मिणी से ।।

जोड़ता है रोज मकसद ।
आदमी को आदमी से ।।

ख्वाब यूं टूटे न मेरा ।
डर गया हूँ रोशनी से ।।

वह हवा की बेरुखी थी ।
क्यों शिकायत ओढ़नी से ।।

चुन लिया उल्फ़त को मैंने ।
इक तुम्हारी पेशगी से ।।

लौट आया है तबस्सुम ।
फिर तेरी दरिया दिली से ।।

नवीन मणि त्रिपाठी
अप्रकाशित मौलिक

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Comment by narendrasinh chauhan on February 1, 2017 at 10:26am

खूब सुन्दर रचना 

Comment by Gurpreet Singh jammu on February 1, 2017 at 8:57am
बहुत अच्छी ग़ज़ल आदरणीय नवीन जी....
बादलों का यूं घुमड़ना ।
है कोई मतलब जमीं से ।।
सिर्फ राधा ढ़ूढ़ते हो ।
क्या गिला है रुक्मिणी से ।।

जोड़ता है रोज मकसद ।
आदमी को आदमी से ।।

ख्वाब यूं टूटे न मेरा ।
डर गया हूँ रोशनी से ।।

वह हवा की बेरुखी थी ।
क्यों शिकायत ओढ़नी से ।।

ये शेअर बहुत पसंद आए..वाह वाह

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