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गजल(दाँव पर लगता रहा मैं....)

बंद हुए बैंक नोट का आत्मकथ्य

दाँव पर लगता रहा मैं
आँख में सबकी बसा मैं।1

रूप बदला, रंग बदला,
रात-दिन चंचल चला मैं।2

बन जिगर का पुरशकूं क्षण
घर भरा,कितना सहा मैं।3

फिर चलन से दूर होकर
बे-चलन अब हो गया मैं।4

रो रहा,जगता 'बटोरू',
चैन से अब सो रहा मैं।5
मौलिक व अप्रकाशित@मनन

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Comment by Manan Kumar singh on December 5, 2016 at 7:45pm
आपका आभार आदरणीय रामबली जी।
Comment by Manan Kumar singh on December 5, 2016 at 7:44pm
आभार आपका आदरणीय मिथिलेश जी।
Comment by रामबली गुप्ता on December 5, 2016 at 6:46pm
अच्छी ग़ज़ल हुई है आद0 भाई मनन कुमार जी। दिल से बधाई लीजिये।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 4, 2016 at 8:48pm

आदरणीय मनन जी, इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई. सादर 

Comment by Manan Kumar singh on December 4, 2016 at 10:56am
आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय गिरिराज भाई।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 4, 2016 at 10:28am

आदरनीय मनन भाई , अच्छी गज़ल हुई है , हार्दिक बधाइयाँ । बाक़ी बातें आ. समर भार्र कह ही चुके हैं , खयाल कीजियेगा ।

Comment by Manan Kumar singh on December 2, 2016 at 4:55pm
आभार आदरणीय समर साहिब
Comment by Samar kabeer on December 2, 2016 at 3:31pm
जनाब मनन कुमार सिंह जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
मतले के ऊला मिसरे में 'पड़' को "पर" कर लें ।
तीसरे शैर के ऊला मिसरे में'पुरशकुन' को "पुरसुकूँ" कर लें ।
Comment by Manan Kumar singh on December 2, 2016 at 12:57pm
आभार आपका
Comment by Nidhi Agrawal on December 2, 2016 at 10:42am

सामयिक विषय पर बहुत सुन्दर ग़ज़ल बन पड़ी .. मुबारक 

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