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ग़ज़ल...भुलाने में मुझको ज़माने लगेंगे

बहरे मुतकारिब मुसमन सालिम
फऊलुन् फऊलुन् फऊलुन् फऊलुन्
122 122 122 122
वो पलछिन सभी याद आने लगेंगे
भुलाने में मुझको ज़माने लगेंगे

यहाँ बैठ कर हमने खाई हैं कसमें
ये पत्थर सनम गुनगुनाने लगेंगे

यूँ ही रूठने मान जाने के मंजर
यकीं मानिये सब सुहाने लगेंगे

सरे आइना जो मेरा अक्स होगा
वो दर्पन से नजरें चुराने लगेंगे

सखी हाल दिल का कभी पूँछ लेगी
कभी हाले दिल आजमाने लगेंगे

(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on November 22, 2016 at 10:25pm
आदरणीय Samar Kabeer जी रचना पटल पे आपका हार्दिक अभिनन्दन संग नमन करता हूँ..आदरणीय ग़ज़ल भविष्य को लेकर ही लिखी है..आपका मार्गदर्शन चाहूँगा
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on November 22, 2016 at 10:22pm
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी आपने बहुत बारीक़ कमी की ओर ध्यानाकर्षित किया अक्सर लोग ऐसी कमियों पे ध्यान नहीं देते..आपके अमूल्य समय और सार्थक समीक्षा के लिए आभार संग नमन...
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on November 22, 2016 at 10:18pm
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी आपका हार्दिक आभार..
Comment by Samar kabeer on November 22, 2016 at 10:00pm
जनाब बृजेश कुमार'ब्रज'साहिब आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
दूसरे और तीसरे शैर में रदीफ़'लगेंगे' काम नहीं कर रही है,"लगेंगे"यानी भविष्य में ? देखियेगा ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 22, 2016 at 12:41pm

आदरणीय बृजेश भाई , बहुत अच्छी गज़ल हुई है , दिल से बधाइयाँ स्वीकार करें ।

अंतिम शे र मे  -- सखी का बहु वचन सखियाँ होना चाहिये ,  आपने अनुस्वार लगा के सखीं कर लिया है , या तो एक वचन मे मिसरा कह लें या --
कभी हाले दिल पूछ सखियाँ भी लेंगी   -- ऐसा कर लीजिये ।
कभी हाले दिल आजमाने लगेंगे

Comment by नाथ सोनांचली on November 21, 2016 at 5:45am
आदरणीय श्री बृजेश कुमार ब्रज जी सादर अभिवादन
आपकी गजल के लिए दिली दाद हाजिर है। बधाई कबूल करें।

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