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ग़ज़ल - ये जिंदगी है यहाँ इम्तहान और भी हैं

1212 1122 1212 112

हमारे जख़्म के गहरे निशान और भी हैं ।
ये जिंदगी है यहाँ इम्तहान और भी हैं ।।

न रोक आज परिंदों की आजमाइश को ।
फ़ना के बाद कई आसमान और भी हैं ।।

समझ सको तो मेरी बात मान लो वरना ।
मेरी किताब में लिक्खी जुबान और भी हैं ।।

जरा सँभल के चलो ये मुकाम ठीक नही ।
यहां तो लोग भी रखते इमान और भी हैं ।।

न जाइयेगा कभी इश्क के समन्दर में ।
वहाँ तो दर्द के बढ़ते उफान और भी हैं ।।

जो हुक्मरां है उसे रिश्वतों से मतलब है ।
फरेब खाने से आये बयान और भी हैं ।।

बरी हुए हो तो इतना नहीं गुरूर करो ।
अदालतें हैं , खुदा के विधान और भी हैं ।।

है क़ातिलों की हिमाक़त व् हैसियत पे नज़र ।
सनम के हाथ में तीरो कमान और भी हैं ।।

वो ढह गयी है इमारत जहाँ मिले थे हम ।
मुहब्बतों के तो गिरते मकान और भी हैं ।।

वफ़ा खरीद न उससे वो बेचता ही नहीं ।
इसी बजार में खुलती दूकान और भी हैं ।।

--नवीन मणि त्रिपाठी
अप्रकाशित मौलिक

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Comment by Naveen Mani Tripathi on October 21, 2016 at 11:13am
आदरणीय भंडारी सर बहुत बहुत आभार । बिलकुल सहमत हूँ गुंजाइश की सीमारेखा कोई नही है ।
Comment by Naveen Mani Tripathi on October 21, 2016 at 11:12am
आदरणीय कबीर साहब आपकी पारखी नज़र को सलाम । तहेदिल से शुक्रिया । आपकी सलाह का एडिट करके ठीक करता हूँ ।
Comment by Samar kabeer on October 20, 2016 at 9:48pm
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद वुबुल फरमाएं ।
दूसरे शैर में 'आजमाइस' को "आज़माइश" कर ले ।
तीसरे शैर में 'ज़ुबान'एक वचन है और आपकी रदीफ़ बहुवचन है ?
चौथे शैर में 'ईमान'शब्द खटक रहा है ।
आठवें शैर का ऊला मिसरा बह्र में नहीं है ।
आख़िरी शैर में 'बजार'शब्द ग़लत है,सही शब्द है "बाज़ार" ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 20, 2016 at 8:31am

आदरणीय नवीन भाई , बहुत अच्छी गज़ल कही आपने , हार्दिक बधाइयाँ ।

न रोक आज परिंदों की आजमाइस को ।
फ़ना के बाद कई आसमान और भी हैं ।।

बरी हुए हो तो इतना नहीं गुरूर करो ।
अदालतें हैं , खुदा के विधान और भी हैं ।  --- बहुत खूब , हार्दिक बधाई

कुछ शेर मे कहन के लिहाज़ से गुंजाइश दिखती है , देखियेगा भला ! वैसे ये बात भी सही है कि कुछ भी कह लें गुंजाइश हमेशा रहती है , और अच्छे की , चाहे मै कहूँ या आप । फिर भी ।

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