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1222 1222 1222 1222

तेरे औ' मेरे नामों पर सियासत और हो जाती
निहाँ होता नहीं सब कुछ तो आफ़त और हो जाती.

ह़दों से आगे जा कर ये ग़मे फ़ुर्क़त असर करता
अगर मुझको तेरी स़ुह़्बत की आ़दत और हो जाती.

ये रोने धोने का आ़लम, फ़िराक़े यार का मौसम
ए क़िस्मत! हैं अभी ये कम, अज़ीयत और हो जाती!

ख़िरद पर ग़र यकीं करते नहीं फिर जाने क्या होता
जो सुनते दिल की, दुनिया से अ़दावत और हो जाती.

चलो अच्छा हुआ दो टूक तुमने कह दिया वरना
ज़ियादा वक़्त जो देते रफ़ाक़त और हो जाती.

मुझे तुम सिफ़् र कर देते मुझी से, दूर फिर जाते
"जहाँ सब कुछ हुआ इतनी इनायत और हो जाती".

बदल जाता ये त़ूफ़ाँ ख़ुशनुमा बादे स़बा में तब
शरीफ़ों ' से यहाँ ग़र कुछ शराफ़त और हो जाती.

अज़ीयत-कष्ट, यातना

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Ravi Shukla on October 7, 2016 at 11:37am

आदरणीय सुनील जी अच्‍छी गजल कही है आपने शेेर दर शेर बधाई आपको 


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Comment by गिरिराज भंडारी on October 5, 2016 at 9:47pm

आदरनीय श्री सुनील भाई , अच्छी गज़ल कही है , आपको गज़ल के लिये हार्दिक बधाइयाँ ।

Comment by Arpana Sharma on October 4, 2016 at 3:44pm
चलो अच्छा हुआ दो टूक तुमने कह दिया वरना
"ज़ियादा वक़्त जो देते रफ़ाक़त और हो जाती."

बहुत खूब। बधाई

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