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टिमटिमाते तारे की रोशनी में

मैंने भी एक सपना देखा है ।  

टुटे हुए तारे को गिरते देखकर

मैंने भी एक सपना देखा है ।  

सोचता हूं मन ही मन कभी

काश ! कोई ऐसा रंग होता

जिसे तन-बदन में लगाकर

सपनों के रंग में रंग जाता ।

बाहरी रंग के संसर्ग पाकर

मन भी वैसा रंगीन हो जाता ।

सपनों से जुड़ी है उम्मीदें, पर   

उम्मीदों की उस परिधि को

क्या नाम दूं ? सोचता हूं तो 

मन किसी अनजान भंवर में

दीर्घकाल तक उलझ जाता है।

कोई अनसोची जवाब उभरता

फिर क्षण भर में लुप्त हो जाता है ।   

उम्मीद ही तो वह संजीवनी है

जिसके सहारे सपनों की राह में

आने वाली हर चुनौतियों के आगे

ना कभी मस्तक झुका ना दिल हारा ।  

उम्मीदों की इसी कश्ती में होकर सवार

मैं सपनों की रंगीन दुनिया ढूंढ निकालूँगा । 

मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Govind pandit 'swapnadarshi' on August 25, 2016 at 7:51pm

आ. गिरिराज सर, आपका स्नेह मेरे उत्साह का स्रोत है, आपको मेरा यह प्रयास अच्छा लगा, मेरा लिखना सफल हुआ. 

Comment by Govind pandit 'swapnadarshi' on August 25, 2016 at 7:46pm

आ. समर साहब आभार, आपको कविता पसंद आई, आपका प्यार मिला. 

Comment by Samar kabeer on August 25, 2016 at 6:16pm
जनाब गोविन्द जी आदाब,इस प्रस्तुति के लिये बधाई स्वीकार करें ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 25, 2016 at 5:32pm

आदरनीय गोविन्द भाई , जब तक सांस है तब तक आस है ,  आपकी कविता अच्छी लगी । हार्दिक बधाइयाँ ।

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