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टूटा हुआ आइना

"ये तो होना ही था। अब ये टूटा हुआ आइना कुछ तो अपशकुन करता ही न !" बंटू के दुकान से पैसे लेकर गायब होने की खबर पर, उसने आदतन मुन्ना की ओर एक तीर छोड़ा और अपने 'चाल नुमा कमरे' की ओर मुड़ गया।
......... उसके कमरे की खिड़की से सामने गली में नजर आने वाले मुन्ना के छोटे से 'हेयर कटिंग सैलून' में लगे टूटे हुए आइने को देखकर अक्सर उसे बहुत बेचैनी होती थी। वो जब तब उसे कहता भी रहता था कि 'इसे बदल दो, टूटा हुआ आइना शुभ नहीं होता' लेकिन मुन्ना सदा जवाब में मुस्करा देता अलबता मुन्ना का युवा नौकर बंटू उसकी बात पर हँसने लगता था। ऐसे में वो थोडा झुंझला भी जाता लेकिन अपने ही गाँव का होने के कारण वह उसे अधिक कुछ कह भी नहीं पाता था। बरहाल अपने कमरे में लगे आईने की सुरक्षा का वो विशेष ध्यान रखता था। खासतौर पर जब उसकी कम उम्र युवा पत्नी बिन्नो अपनी सुन्दरता निहारने के दौरान आईने को इधर उधर छोड़ देती तो ऐसे में कई बार वो उसको डांट भी दिया करता था। हालांकि वह खुद भी नहीं जानता था कि डांटने की वजह आईना ही होता था या एकाद बार बंटू को पत्नी की सुंदरता को एकटक निहारते हुए देखना ।.......
"बिन्नो !" अंदर से कोई प्रत्युत्तर न मिलने, और खुले कमरे में पत्नी को न पा वो शंकित हो उठा। कमरे में खुले सन्दूक और बिखरे सामान के साथ, जमीन पर बिखरे पड़े टूटे हुए आईने को देख अनायास ही वो परेशान हो गया।
"कहाँ गयी बिन्नो... इस तरह तो वो कभी कहीं नहीं जाती ?" वो स्वयं से बुदबुदाने लगा।
"....अरे बंटू को तो किसी औरत के साथ जाते देखा था।" दुकान पर खड़ी भीड़ में से किसी के कहे शब्द याद आते ही उसका जहन एकाएक अपने आप से उलझने लगा।
"नहीं, नहीं ! बिन्नो ऐसा कैसे कर सकती है.....?"
"लेकिन ये बंटू था भी बहुत चालाक, कही उसने......"
"पुराने लोग यूँ ही तो नहीं कहते थे, टूटा हुआ आइना..., ये सारी गलती मेरी ही है मुझे पहले ही समझ जाना चाहिए था.......।" अपने ही विचारो में उलझा हुआ वो बेसुध हो अपनी चेतना खोने लगा।
"अरे आप कब आये, और यूँ जमीन पर क्यों बैठे है ?" अनायास ही बिन्नो कमरे में दाखिल हो थोडा हैरान हो गयी।
"नहीं, यूँ ही बस जरा....... लेकिन तुम कहाँ चली गई थी ?" बिन्नो की आवाज से जैसे उसका गिरता रक्त-चाप स्वयं ही सही स्तर पर आने लगा था, वो उसकी ओर देखते हुये उठ खड़ा हुआ।
"अरे कहीं दूर नहीं, मैं जरा बंटू के साथ बड़े हस्पताल चली गयी थी। बेचारे की माँ की तबीयत अचानक खराब हो गयी, इतना समय भी नहीं मिला कि तुम्हे खबर कर पाती। इसी अफरातफरी में ये आइना भी टूट गया।..." बिन्नो आईने के टुकड़े चुनते हुये अपनी बात कहे जा रही थी और वो अपने ही बनाये वहम के जाल को कटते हुए देखता रहा। "घर में रखे हुए कुछ पैसे भी ले गयी थी साथ, अब उस बेचारे का हम लोगो के सिवा है भी कौन इस शहर में।"
"अब कैसी है उसकी माँ की तबीयत ?" उसने सहज होते हुए कहा।
"ठीक है, सुबह एक बार जा कर मिल लीजिये।" बिन्नो उसकी और देख रही थी। "और हाँ, कल आते हुए नया आइना ले आना, टूटा हुआ आइना........।"
"अपशकुनि नहीं होता।" उसकी बात पूरी होने से पहले ही, उसने बिन्नो के होठों पर ऊँगली रख उसे चुप कर दिया और मुस्कराने लगा।

"विरेंदर वीर मेहता"
(मौलिक व् अप्रकाशित)

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Comment by rajesh kumari on July 14, 2016 at 7:52pm

अंधविश्वास पर बढ़िया तंज करते हुए अच्छी कहानी लिखी है आद० वीर मेहता जी हार्दिक बधाई 

Comment by Sushil Sarna on July 14, 2016 at 2:32pm

आ. वीरेंदर जी अन्धविशवास को केंद्रित करते हुए आपने बहुत ही सुंदर,सार्थक और संदेशप्रद लघुकथा का सृजन किया है। हार्दिक बधाई स्वीकार करें। 

Comment by Rahila on July 14, 2016 at 12:35pm
वाह...वाह,खूब किया अंधविश्वास पर करारा कटाक्ष ।बहुत सार्थक ,बेहतरीन रचना आदरणीय सर जी !सादर
Comment by Samar kabeer on July 14, 2016 at 12:22pm
जनाब वीरेंद्र वीर मेहता जी आदाब,इस सुंदर प्रस्तुति हेतु बधाई स्वीकार करें ।

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