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पूर्व-पीठिका

==========

-1-

‘‘ए ! कौन हो तुम लोग ? कैसे घुस आये यहाँ ? बाग खाली करो अविलम्ब !’’ यह एक तेरह-चैदह साल की किशोरी थी अपनी कमर पर दोनों हाथ रखे क्रोध से चिल्ली रही थी। क्रोध होना स्वाभाविक भी था। तकरीबन चार-पाँच सौ घुड़सवारों ने उसके बाग में डेरा डाल दिया था। जगह-जगह घोड़े चर रहे थे। कुछ ही बँधे थे, बाकी तो खुले ही हुये थे किंतु उनके सबके सामने आम की पत्तियों के ढेर लगे थे। तमाम डालियाँ टूटी पड़ी थीं। बहुत से लोग पेड़ों पर चढ़े हुये आम नीचे गिरा रहे थे, नीचे भी तमाम लोग खड़े थे जो उन आमों को लपक कर ढेर बना रहे थे। दूर एक ओर कुछ अधेड़ बैठे आम चूस रहे थे। एक ओर बने बड़े से तालाब में 30-40 लोग घुसे हुये थे।
उसकी आवाज पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। सब यथावत अपने काम में लगे रहे। अधेड़ों और तालाब में घुसे लोगों तक शायद उसकी आवाज पहुँची भी नहीं होगी।
‘‘सुनाई नहीं दे रहा तुम लोगों को, कुछ कह रही हूँ मैं ? दस्यु कहीं के, जरा बाग खाली देखा घुस आये बरबाद करने।’’ इस बार उसकी आवाज और तेज थी। आस-पास के कुछ लोगों ने उसकी ओर देखा पर कोई ध्यान नहीं दिया। उसका क्रोध इस अवहेलना पूर्ण व्यवहार से और बढ़ गया। बह आगे बढ़ी और सबसे निकट के झुण्ड में खड़े एक युवा से आम छीनने का प्रयास करते हुये फिर चिल्लाई -
सुनाई नहीं दे रहा तुम्हें, बहरे हो क्या ?’’
उस युवक ने अपना आम वाला हाथ ऊँचा कर लिया और दूसरे हाथ से लड़की को हल्के से परे धकेल दिया। इससे लड़की और आवेश में आ गई उसने भी पलट कर पूरी ताकत से युवक को धक्का दिया। युवक थोड़ा सा लड़खड़ाया फिर उसने दुबारा धक्का देने को उद्यत लड़की का हाथ पकड़ लिया। अब वह बोला -
‘‘तमीज नहीं है क्या ? एक धर दिया तो बत्तीसी बाहर आ जायेगी।’’
‘‘तमीज सिखा रहा है मुझे ?’’ उसकी पकड़ से छूटने को दूसरे हाथ से उसके पंजे को नोचने का प्रयास करती लड़की बोली - ‘‘तमीज से तुम्हारा खुद का दूर-दूर तक कोई वास्ता है ?’’
‘‘क्या हो रहा है उधर उन्मत्त ?’’ दूर बैठे अधेड़ों को इधर की हलचल का शायद कुछ आभास हो गया था। उनमें से एक ने आवाज लगाई।
‘‘बाबा ये कोई लड़की खामखाह उलझ रही है।’’ उस लड़के ने जवाब दिया।
‘‘धैर्य रखो, मैं आता हूँ।’’ कहता हुआ वह उठा और इधर की ओर बढ़ चला। दो अधेड़ और भी उसके संग हो लिये।
‘‘क्या बात है ? छोड़ो उसे उन्मत्त !’’
‘‘बाबा ये बेवजह धक्के दे रही है, नोच रही है, काट रही है।’’ अपनी कलाई अधेड़ के सामने करते हुये उसने कहा।
‘‘क्या बात है बेटा, क्या हम लोग सभ्य तरीके से बात नहीं कर सकते ?’’ अधेड़ लड़की से सम्बोधित हुआ।
‘‘सभ्य लोगों के साथ सभ्य तरीके से बात संभव है। उजड्डों से वही बर्ताव होता है।’’
‘‘खैर इस पर बहस नहीं करता मैं, अपनी समस्या बताओ तुम।’’
‘‘आप लोग फौरन मेरा बाग खाली कर दीजिये।’’
‘‘वह हम नहीं कर सकते बेटा। हमारी विवशता है।’’
‘‘कैसी विवशता है। हट्टे-कट्टे तो हैं सब लोग। अपने अश्व सम्हालिये और निकल जाइये यहाँ से।’’ लड़की के तेवरों में कोई फर्क नहीं था, बस अपने से बहुत बड़े व्यक्ति को सम्मुख देख कर तुम की जगह आप का प्रयोग करने लगी थी।
‘‘ऐसा नहीं है। हममें से अधिकांश कम या अधिक, घायल हैं। तुम देख ही रही होगी कि मैं भी घायल हूँ।’’ पुनः बीच में कुछ बोलने को उद्यत लड़की को हाथ के इशारे से रोकते हुये वह आगे बोला - ‘‘हम सब दो दिन से दौड़ रहे हैं, कुछ खाया भी नहीं है हमने। अब आगे बढ़ने की न तो हमारी क्षमता है और न ही अश्वों की। हाँ कुछ धंटे विश्राम करके सांझ तक हम यहाँ से अपने आप चले जायेंगे।’’
‘‘आप थके हैं या घायल हैं तो इससे आपको दूसरे को लूटने का अधिकार नहीं मिल जाता।’’
‘‘बेटा ! आपत्तिकाले मर्यादा नास्ति ! फिर भी हम पूरी मर्यादा में रहने का प्रयास कर रहे हैं।’’
‘‘वाह ! क्या मर्यादा है, सारा बाग उजाड़ कर रख दिया। साँझ तक रुके तो जो बचा है वह भी चैपट हो जायेगा। आपको पता है इसी बाग से हम साल भर की जीविका कमाते हैं। क्या करेंगे हम पूरे साल ?’’
‘‘भूखे को भोजन खिलाना तो तुम आर्यों में सबसे बड़े पुण्य का काम माना गया है। फिर हम तो तुम्हें पूरी क्षतिपूर्ति देने को तैयार हैं।’’
‘‘तुम आर्यों में ?’’ ओह इसका मतलब आप लोग अनार्य हैं। मैं तो सोच रही थी कि आर्य जाति इतनी जंगली कैसे हो गयी।’’
‘‘अब तुम अपनी सीमा का अतिक्रमण कर रही हो।’’
‘‘अनार्यों के लिये मेरी कोई सीमा नहीं है। वैसे कौन हैं आप ?’’
‘‘हम रक्ष हैं !’’
‘‘भाई माल्यवान आप विश्राम कीजिये जाकर, आप अधिक घायल हैं। मैं निपटता हूँ इससे।’’ अब तक शांत खड़े दूसरे अधेड़ ने उस व्यक्ति को बाँह पकड़ कर जाने का इशारा करते हुये कहा। फिर वहीं खड़े अपेक्षाकृत युवा से सम्बोधित हुआ -‘‘वज्रमुष्टि ले जाओ इन्हें यहाँ से।’’
‘‘सुमाली ! धैर्य से काम लेना।’’ माल्यवान ने सुमाली की बात मानकर जाते हुये कहा।
‘‘जी निश्चिंत रहिये।’’
‘‘मेरी बात सुन रहे हैं या नहीं ?’’ लड़की पुनः चिल्लाई
‘‘सुन भी रहे हैं और समझ भी रहे हैं किंतु हमारी विवशता है कि उसे हम मान नहीं सकते।’’ सुमाली ने पूरी गंभीरता से नम्र किंतु दृढ़ स्वर में कहा।
‘‘क्यों ?’’
‘‘हम तुम्हारा अधिकार स्वीकार करते हैं, इस नाते हम तुम्हें क्षतिपूर्ति देने को तैयार हैं किंतु सूरज डूबने से पूर्व यहाँ से जा नहीं सकते।’’
‘‘अजीब दादागीरी है। कैकय राज्य में यह जबरदस्ती नहीं चलने वाली।’’
‘‘अभी तो चलेगी। हमारी विवशता है।’’ सुमाली का स्वर पूर्ववत था।
‘‘कैसे चलेगी। मैं अभी राज्य अधिकारी को सूचित करती हूँ जाकर।’’
‘‘तुम कहीं नहीं जाओगी। वैसे तुम्हारे राज्य अधिकारी का भय नहीं है हमें और स्वयं अश्वपति इतनी शीघ्र आ नहीं सकते। सूरज डूबने के बाद कोई हमारी धूल तक नहीं खोज पायेगा।’’
‘‘आप रोकेंगे मुझे ?’’
‘‘विवशता है, समझने का प्रयास करो। शांति से बैठो, अपनी क्षतिपूर्ति लो, सायंकाल हम स्वयं चले जायेंगे।’’
‘‘आप मेरे साथ बल प्रयोग करेंगे, एक अकेली लड़की के साथ ?’’
‘‘यदि तुमने वैसी स्थिति उत्पन्न कर दी तो करना ही पड़ेगा।’’ यह आवाज एक घुड़सवार की थी जो भीड़ लगी देख कर इधर आ गया था। ‘‘क्या माजरा है सम्पाती ?’’ उसने भीड़ में खड़े एक युवक से पूछा।
‘‘कुछ नहीं भाई ! यह लड़की पितृव्यों से अनर्गल बहस किये पड़ी है। कहती है अभी बाग खाली कर दो।’’
‘‘करो बल प्रयोग। मैं भी देखूँ कितने बड़े मर्द हो तुम। आर्य कन्याओं से अभी पाला पड़ा नहीं है।’’ लड़की ने अब अपनी कमर में खुँसी कटार निकाल ली थी।
‘‘कटार की आवश्यकता नहीं है बेटी। हम तुम्हें कोई क्षति नहीं पहुँचायेंगे।’’
‘‘मत कहो मुझे बेटी। मुझे अनार्यों की सहानुभूति की आवश्यकता नहीं है।’’
‘‘पिता आप चलिये। ये देव और आर्य स्वभावतः ही दम्भी होते हैं। इन्हें सभ्यता की भाषा समझ नहीं आती।’’
‘‘नहीं अकम्पन। तुम क्रोधी हो। तुम झगड़ा कर दोगे।’’
‘‘नहीं पिता ! मैं संयम ... आह !’’ उसका वाक्य बीच में ही रह गया।
लड़की ने ‘‘कर बलप्रयोग’’ कहते हुये उस पर कटार से वार कर दिया था। कटार अकम्पन की जाँघ में घुस गयी थी। तभी वहाँ खड़े दूसरे लड़के ने पीछे से लड़की के बाल पकड़ कर खींच लिया और एक जोरदार तमाचा रसीद किया। वार पूूरी ताकत से किया गया था। लड़की चक्कर खाकर जमीन में जा गिरी।
‘‘नहीं दण्ड !’’ उस लड़के को रोकते हुये सुमाली लपक कर लड़की को उठाने को बढ़ा पर लड़की ने उससे पहले ही उठकर कटार वाला हाथ घुमा दिया। इस बार कटार मुमाली की बाँह से छूते हुये निकल गयी। सुमाली ने बढ़ कर उसका कटार वाला हाथ पकड़ना चाहा पर वह फिर हाथ घुमा चुकी थी। सुमाली का हाथ बीच में आ जाने से वार चूक गया और घोड़े से उतरने के लिये झुके हुये अकम्पन की छाती की बजाय घोड़े की गर्दन में लगा। घोड़ा गर्दन को झटका देता हुआ एकदम अगले दोनों पैर उठा कर खड़ा हो गया। उसकी गर्दन के झटके से लड़की पलट कर गिर पड़ी। हठाथ उसके दोनों हाथ जमीन पर आये। पीछे से नीचे आते घोड़े के दोनों पैर उसकी पीठ पर पड़े। लड़की की एक तेज चीख गूँज गयी। झटके से उसका सिर नीचे आया और उसके हाथ में थमी कटार उसके ही चेहरे में धँस गयी।
जब तक कोई समझे-समझे पलक झपकते यह सब हो गया। अकम्पन ने तत्परता से घोड़े को पीछे खींच लिया था पर फिर भी उसकी एक टांग लड़की की जांघ पर पड़ गयी थी।
सुमाली ने झपट कर लड़की को सम्हालने का प्रयास किया। उसकी आँखें मुँद रहीं थीं। उसके मुँह से अस्फुट शब्द निकले - ‘‘अगर चपला जीवित बची तो तुम राक्षसों को निर्मूल करने में अपनी जिंदगी दाँव पर लगा देगी।’’ इसके साथ ही उसकी आँखें मुँद गयीं।
अकम्पन घोड़े से नीचे आ गया था।
‘‘सम्पाती अश्व का घाव देखो !’’ कहते हुये उसने झपटकर लड़की को उठाया और जिधर माल्यवान आदि बैठे थे उधर बढ़ चला।
‘‘पता नहीं क्यों इन आर्यों के मन-मस्तिष्क में इतना विष घुला है !’’ कहता हुआ सुमाली उसके पीछे चल दिया।
क्रमशः ....

- मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Saurabh Pandey on June 22, 2016 at 5:33pm

पढ़ रहा हूँ, आदरणीय !

शुभ-शुभ

Comment by Sulabh Agnihotri on June 20, 2016 at 9:56am

कोशिश तो यही रहेगी कि नित्य एक कड़ी आपको मिलती रहे।

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on June 20, 2016 at 12:19am
वाह, अगली कड़ी का बेसब्री से इंतज़ार रहेगा आदरणीय सुलभ अग्निहोत्री जी।

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