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ग़ज़ल - पर हृदय में आज भी जीती चुभन है - गिरिराज भन्डारी

2122    2122    2122

जब हवायें चल रहीं हैं क्यों घुटन है

सूर्य है उजला तो क्यों काला गगन है

 

कल बहुत उछला था अपनी जीत पर जो

आज क्यों हारा हुआ बोझिल सा मन है

 

चिन्ह घावों का नहीं है पीठ पर अब

पर हृदय में आज भी जीती चुभन है

 

मन ललक कर आँखों को उकसा रहा था

कह रहा संसार पर दोषी नयन है

 

सत्य तर्कों में समाया है भला कब ?

तर्क झूठों को बचाने का जतन है

 

क्या हृदय-मन, सोच जीती है कहीं पर

या कि जीता आ रहा जो , सिर्फ तन है

 

गालियाँ पारस सी होने लग गयीं क्या ?

जिसपे बरसी आज वो चमका रतन है

 

सिद्धि को सर पर उठाने की ललक में 

आज गाली खा रहा हर आचमन है

************************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 6, 2016 at 9:08am

आदरनीय अनुज भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 6, 2016 at 9:07am

आदरणीया राजेश जी , आपकी उपस्थिति और सराहना से ग़ज़ल सार्थक हुई , आपका हार्दिक आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 6, 2016 at 9:06am

आदरणीय बृजेश भाई , आपका तहेदिल से शुक्रिया ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 6, 2016 at 9:05am

आदरणीय सुशील सरना भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हृदय से आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 6, 2016 at 9:05am

आदरणीय राजेन्द्र भाई, सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 6, 2016 at 9:04am

आदरनीय समर भाई , हौसला अफज़ाई का तहेदिल से शुक्रिया आपका । आपकी सलाह सही है ' वो ' ज़ियादा सही है , मै अपनी कापी मे सुधार लिया हूँ , आपका आभार ।

Comment by Anuj on June 4, 2016 at 6:36pm

क्या हृदय-मन, सोच जीती है कहीं पर

या कि जीता आ रहा जो , सिर्फ तन है

गालियाँ पारस सी होने लग गयीं क्या ?

जिसपे बरसी आज वो चमका रतन है

आदरणीय गिरिराज जी आपके शेरों में एक खास तरह की बौद्धिकता और व्यंगात्मकता भी है जो अलग से आकृष्ट करती है. बधाईयाँ .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 4, 2016 at 5:14pm

चिन्ह घावों का नहीं है पीठ पर अब

पर हृदय में आज भी जीती चुभन है

 

मन ललक कर आँखों को उकसा रहा था

कह रहा संसार पर दोषी नयन है

 वाह वाह आ० गिरिराज जी बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई हार्दिक बधाई |

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on June 4, 2016 at 9:30am

वाह आदरणीय बहुत ही शानदार ह्रदयस्पर्शी ग़ज़ल कही है 

Comment by Sushil Sarna on June 3, 2016 at 1:28pm

चिन्ह घावों का नहीं है पीठ पर अब
पर हृदय में आज भी जीती चुभन है

वाह आदरणीय गिरिराज जी वाह दिल को छूती इस ग़ज़ल के हर शेर पर दाद कबूल फरमाएं सर।

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