ख़बर सबकी है ख़ुद से बेख़बर हैं
ख़ुदा जाने के हम कैसे बशर हैं।
असर कलयुग का कुछ ऐसा हुआ है
फकीरों की दुआएं बेअसर हैं।
परिंदे ढूंढते हैं आशियाना
के शहरों में बचे कुछ ही शजर हैं।
हैं आलीशान ज़ाहिर में सभी कुछ
मगर टूटे हुए अंदर से घर हैं।
मिटी इंसानियत आदम बचा है
हज़ारों हो गये ऐसे नगर हैं।
जो दें किरदार की खुशबू सभी को
बहुत कम रह गये ऐसे,मगर हैं।
अंधेरों ने किये दर बंद सारे
उजाले फिर रहे अब दर ब दर हैं।
-----मौलिक एवं अप्रकाशित ।
Comment
बढ़िया ग़ज़ल है, हार्दिक बधाई
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