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मैं कविता क्यों नहीं लिखता

ऐसा नहीं कि मुझे कविता, लिखनी नहीं आती
सच तो ये है कविता मुझसे लिखी नहीं जाती .

कविता लिखने की ललक में, ऐसे उठाता हूं मैं पैन
गर्भवती कोई जैसे छुपके, कच्चा आम लपकती है.
पर बेचारा कोरा कागज़, यूं सहमने लगता है
जैसे गुण्डों से घिरी, कोई अबला मिन्नत करती है.
शील-हरण तो रोज़ ही होते, बड़े शहर के चौराहों पर
लेकिन मुहल्ले की गलियों में, मैली आंख भी नहीं सुहाती.
इसीलिए तो कविता मुझसे लिखी नहीं जाती.

चाहूं तो किसी की झील सी आंखों
और बादल से काले बालों,
कमर लचकती, चाल हिरण सी
शहतूत से होंठों, सेब से गालों,
पर ऐसी सुंदर लिखूं कविता, कि पांऊं चुंबन का इनाम
फिर उसी कविता को छपवाकर, पा जाऊं गुठली के दाम
पर हिसाबी नहीं रहा ज़न्म से, चोरबाज़ारी भी नहीं आती

इसीलिए तो कविता मुझसे लिखी नहीं जाती

मैं जन-कवि कहला सकता हूं

व्यवस्था को दे के चार गालियां
या क्रान्ति के झुठे गीत लिखूं मैं
और बटोरूं खूब तालियां
हाथ में गीता झूठी गवाही, कोर्ट में तो रोज़ ही चलती
लेकिन सरस्वती मंदिर में 400बीसी हो नहीं पाती
इसीलिए तो कविता मुझसे लिखी नहीं जाती

या सुंदर-सुंदर शब्द छांट के
डिक्षनरी से मैं ले आऊं
शब्दों को ऐसा उलझा दूं
बहुत बड़ा विद्वान कहलाऊं
उलझी-उलझी गोल जलेबी, हलवाई तो रोज़ बनाते
लेकिन ऐसी गोल जलेबी कविता नहीं कभी कहलाती
इसीलिए तो कविता मुझसे लिखी नहीं जाती

औरों की कविता सदा-सुहागन,
छंद और लय के मेक-अप वाली
बिन सुर ताल की मेरी कविता,
मांग भी सूनी, गोद भी खाली .
डरता हूं कि बाकी कवियों में, मेरी कविता ऐसी दिखेगी
जैसे करवा-चौथ के दिन, विधवा फिरे कोई मुंह छुपाती
इसीलिए तो कविता मुझसे लिखी नहीं जाती

मैं कैसे बताऊं कि स्याही से लिखी नहीं जाती कोई कविता
इसे तो आंख के आंसू या फिर लहू पिलाना पड़ता है
अपनी पीड़ा गाते रहना, है सबसे बड़ा कमीनापन
इसे तो जग की पीड़ा को गले लगाना पड़ता है
कविता लिखना तो बांबी से फनियर नाग पकड़ने जैसा
जान हथेली रहे हमेशा , गज़ भर की ये मांगे छाती
इसीलिए तो कविता मुझसे लिखी नहीं जाती
ऐसा नहीं कि मुझे कविता, लिखनी नहीं आती

.
( मौलिक एवं अप्रकाशित )

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Comment by प्रदीप नील वसिष्ठ on November 15, 2015 at 7:16pm
मेरी कविता की इतनी तारीफ के लिए शुक्रिया सुनील भाई । काश ! सब कवि इसे एक बार पढ़ लें । इसलिए नहीं कि मुझे यश मिले बल्कि इसलिए कि यह जान समझ लें कि अच्छे और बुरे , सच्चे और छद्म कवि में क्या अंतर है ।
मैं अक्सर कविता नही लिखता तब तक तो बिलकुल नही जब तक कविता खुद अपने आप को मुझसे लिखवा न ले ।
मेरे पास दो साल से सिर्फ साढ़े तीन कविताएँ ही हैं । आत्म-मुग्ध नही हो पाता । कितनी ही रचनाएँ फाड़ कर फैंक चुका ।
बहरहाल मेरे ब्लॉग पर आने का शुक्रिया ।
Comment by प्रदीप नील वसिष्ठ on November 14, 2015 at 4:07pm

बहुत मेहरबानी  कल्पना जी  . मेरे ब्लॉग पर पधार कर मेरा मान बढ़ाया आपने 

Comment by प्रदीप नील वसिष्ठ on November 14, 2015 at 2:04pm

इधर आने का शुक्रिया , पंकज जी। आपने कविता के मर्म को समझा।  आभारी हूँ 

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 14, 2015 at 9:58am
क्या व्यंग है;बहुत बहुत बधाई आदरणीय

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