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घर से निकलते समय मुझे ये पता ही न रहा कि मैने पुरानी चप्पल डाली है | थोड़ी दूर चलने के बाद चप्पल टूट गई, इसी दुबिधा में कि घर वापस जाऊं या आगे,मैं टूटे चप्पल के साथ पैर घसीटते हुए आगे बढ़ गया | अचानक मेरा ध्यान सड़क के किनारे बैठे जूतियाँ गांठने वाले पर पड़ी, उसके नजदीक जा मैने चप्पल आगे बढ़ा दी |

" पांच रुपए लगेंगे " उसने नजरें चप्पल की और डालते हुए कहा |"
कोई बात नहीं " आप इसे ठीक कर दो |,
मैने उसकी आवाज़ पहचानते हुए थोडा सोच पे जोर देते हुए कहा |
" क्या तुम सुंदर हो ? जो हमारे कालज में काम करते थे |"
हाँ, साहिब जी, मै सुंदर हूँ, आप कैसे हो ?
मैने कहा " ठीक हूँ | "
"आप ने कालज में काम करना क्यूँ छोड़ दिया ?" मैने फिर सवाल किया |
क्या बताएं साहिब जी, " आज कल वैसे स्टूडेंट नहीं रहे, अब तो बड़े बड़े लोग बड़ी गाड़ियों में आते हैं, अब तो हजारों की उनकी जूतियाँ होती हैं,जो न कभी टूटती हैं और न ही उन्हें पालिश करने की जरूरत होती है | ”
तभी थोडा रुक उसने फिर कहा,”अब तो ये लोग पहले जैसी इज्जत भी नहीं करते |"
"आप तो आते जाते हमारा हाल चल पूछ लेते थे  |"
आज कल के अमीर तो ऐसे हैं, जो काम के पैसे देते हुए भी कितनी बातें बनातें हैं, खुद पे चाहे कितना खर्च करें |
इतने में सुंदर ने चप्पल ठीक कर मेरी तरफ बड़ा दी, तो मैने पैसे निकाल उसे दिए, मगर उस ने पैसे लेने से इनकार कर दिया,
साहिब जी, "आप से हम पैसे नहीं ले सकते |"
“सुंदर आप ने काम किया, काम के पैसे तो लो,आपको अपनी मेहनत तो नही छोडनी चाहिए |"
”नहीं साहिब जी, आप से अगर पैसे ले भी लेंगे तो कौन से अमीर हो जायेंगे”, तब मुझे लगा, जैसे कि इस की अमीरी के आगे कोई बहुत बड़ी अमीरी भी झुक गई हो |

.

"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment by मोहन बेगोवाल on November 4, 2015 at 11:09pm

 सभी साथियों का मेरी लघुकथा के बारे राए दे कर मुझे उत्साहत करने  के लिए धन्यवाद 

Comment by Abid ali mansoori on November 4, 2015 at 8:41pm

साहिब जी, "आप से हम पैसे नहीं ले सकते |"
“सुंदर आप ने काम किया, काम के पैसे तो लो,आपको अपनी मेहनत तो नही छोडनी चाहिए |"
”नहीं साहिब जी, आप से अगर पैसे ले भी लेंगे तो कौन से अमीर हो जायेंगे”, तब मुझे लगा, जैसे कि इस की अमीरी के आगे कोई बहुत बड़ी अमीरी भी झुक गई हो |

मन को छूता एक अहसास!

Comment by Dr. Vijai Shanker on November 3, 2015 at 10:36pm
आदमी की अपनी सोच बड़े मायने रखती है। बहुत प्रेरक कहानी है , आदरणीय बेगोवाल जी , बधाई , सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 3, 2015 at 5:30pm

लघु कथा की अंतिम पंक्तियाँ दिल को छू गई बहुत अच्छी लिखी है आपने आ० बेगोवाल जी ,हार्दिक बधाई आपको .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 3, 2015 at 5:17pm

 आदरणीय मोहन बेगोवाल जी, बहुत सुन्दर प्रस्तुति हुई है. इस प्रस्तुति पर आपको बहुत बहुत बधाई 

Comment by Janki wahie on November 3, 2015 at 12:43pm
वाह सच्चे मन से निकली बात। उम्दा कथानक,बेहतरीन कथा।बधाई।
Comment by Rahila on November 3, 2015 at 11:34am
बहुत सुन्दर कथा रची आद. मोहन जी! सच्चाई को खूब शब्दों में ढाला । बहुत बधाई इस उम्दा रचना के लिये ।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on November 3, 2015 at 10:51am
वाह, आदरणीय मोहन बेगोवाल जी, कमाल कर दिया, अंतिम पंक्ति ने कईयों के मन की बात कह दी --***तब मुझे लगा, जैसे कि इस की अमीरी के आगे कोई बहुत बड़ी अमीरी भी झुक गई हो |
."

बहुत सुंदर उत्कृष्ट लघु कथा। हृदयतल से बहुत बहुत बधाई आपको। ऐसे बहुत से सच्चे दिल के "अमीरों" से हम रूबरू होते रहते हैं, रचनाकार की लेखनी जब उनपर चलती है, तो बड़ा संतोष मिलता है।

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