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आता है जीना जिंदगी हूँ मैं

तुम सोचते हो जो नहीं हूँ मैं
जो कुछ भी मैं हूँ वो यही हूँ मैं। 

दुश्वारियाँ करती नहीं व्याकुल
आता है जीना जिंदगी हूँ मैं। 

जो सोचना है सोचिए साहब
मैं जानता हूँ कि सही हूँ मैं। 

साहिल से यारी मैं करूँ कैसे
जाना है आगे इक नदी हूँ मैं। 

अच्छा किसे लगता भला जलना
पर क्या करूँ कि रोशनी हूँ मैं । 

नीरज कुमार नीर / मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Neeraj Neer on October 29, 2015 at 1:56pm

आदरणीय मिथिलेश जी हार्दिक आभार आपका ... मुझे आपकी टिप्पणी की प्रतीक्षा थी ... प्रस्तुत गज़ल  2212  2212  22   इस बह्र में कहने का प्रयास किया गया है । काफिया के संबंध में अगर विशेष टिप्पणी कर दें दो मेहरबानी होगी । 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on October 29, 2015 at 12:32pm

आदरणीय नीरज जी इस प्रयास के लिए बहुत बहुत बधाई 

प्रस्तुति को देखकर लग रहा है कि ग़ज़ल कहने का प्रयास किया गया है. निवेदन है  बह्र या वज्न अवश्य लिख दीजियेगा ताकि प्रस्तुति का सही आनंद लिया जा सके. काफिया निर्धारण पर भी पुनर्विचार निवेदित है. सादर 

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